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________________ ३. २२. १४ ] हिन्दी अनुवाद हुई गाड़ी। क्या बिना बैलके शकट हिल सकता है ? इसी प्रकार जीवके बिना क्या शरीर चल सकता है ? मेरे मतानुसार जीव अन्य है और शरीर कुछ अन्य । इसीलिए हे भद्र, मैं दिगम्बर मुनि हो गया हूँ। मैं किसी दूसरेको बुराई नहीं करता। यदि इच्छा करता हूँ तो केवल मोक्ष की । ध्यानमें लीन होकर मैं मौन बैठता हूँ। मैं आर्त और रौद्र ध्यानोंसे बचता हूँ। यदि दूसरेको देखता हूँ तो धर्म और शुक्लध्यानके द्वारा । मैं आधाकर्म और उद्देश्यसे रहित शुद्ध आहार लेता हूँ जैसा केवली भगवान्ने कहा है। मैं पांचों आस्रवद्वारोंका निवारण करता हूँ। इस प्रकार हे बाबू, मैं इन्द्रियोंके बलको पराजित करता रहता हूँ। इसपर उस सुभटने कहा-अरे, कहीं गौके सींगसे दूध निकाला जा सकता है ? क्या छत्रके बिना छाया प्राप्त हो सकती है ? जब जीव हो नहीं है, तो मोक्षको कौन प्राप्त करता है ? न जाने क्यों तुम्हारे सदश मनुष्य अपनेआपको सन्तप्त करते हैं ? छोड़ इस तपको और मेरा कहना मान । यथार्थतः जीव और देह एक हो हैं। जिस प्रकार वृक्ष के पुष्पसे उसका गन्ध भिन्न नहीं है, इसी प्रकार देहसे जीवको अलग नहीं किया जा सकता। फूलके विनाश होनेपर जिस प्रकार गन्ध आप ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार शरीरके विनाशसे जोव भी नष्ट हो जाता है। उस सुभटको ये बातें सुनकर मुनिवर बोले और उन्होंने आत्म और परके भेद सम्बन्धी बातकी पुष्टि की। चम्पकको बास तेल में भी लग जाती है, और इस प्रकार जैसे फूलसे उसका गन्ध पृथक् सिद्ध होता है उसी प्रकार देह और जीवकी भिन्नता देखी जाती है। तब फिर तुम जड़त्व मात्रका कथन कैसे करते हो? इसका प्रत्युत्तर देते हुए उस वोर पुरुषने कहा-जीव तो शरीरसे पृथक् मार्गपर जाता हुआ दिखाई नहीं देता. किन्त दिखाई तो यही देता है कि वह गर्भके भीतर रुधिर और शक्रके मिश्रणसे वद्धिको प्राप्त होता है। सुभटको यह बात सुनकर वे संयम और नियमके निधान पूज्य मुनि शान्त और मृदुल भावसे बोले ॥२१॥ २२. जीवको पृथक् सत्ता और उसकी कर्मगतिको परिपुष्टि मुनिने कहा-दूरसे आता हुआ शब्द दिखाई नहीं देता, परन्तु जिस प्रकार कानमें लगनेपर उसका ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार जगत्में नाना योनियोंमें जोवको गति होती है। नाकसे कोई रूपको तो नहीं देखता, कानसे कोई भी भक्ष्य पदार्थोंको नहीं चख सकता। इसी प्रकार जो किसी अन्य साधनके द्वारा ग्रहण योग्य है, उसको अन्य किसी साधन-द्वारा नहीं पाया जा सकता। और फिर रूपसे रूपी वस्तुका हो ज्ञान हो सकता है। और वह भी अपने-अपने विषयभूत पदार्थोंतक ही सीमित होता है । उससे अन्य बातें अनुमान प्रमाण द्वारा सिद्ध होती हैं। सूक्ष्म वस्तुको स्थूल इन्द्रिय-ज्ञानसे स्पर्श नहीं किया जा सकता। क्या हाथीकी सूंड़ द्वारा राईके कणको पकड़ा जा सकता है ? इसी प्रकार जीव इतना सूक्ष्म है कि उसका दर्शन केवल-ज्ञान रूपी सूक्ष्म ज्ञानसे ही किया जा सकता है। इसपर वह सुभट बोला-जीव शरीरसे कैसे निर्गमन करता है और कौन उसे अन्य योनिमें ले आता है ? यह बात सुनकर मुनिराज नये मेघके समान गम्भीर ध्वनिसे संशयका हरण करते हुए बोले-अज अर्थात् ब्रह्मा (प्रजापति ) का शिर काटकर एक अर्थात् शिव महाव्रती हो गये और दूसरे अर्थात् प्रजापति तपभ्रष्ट यति हो गये। इस प्रकार जब शम्भु और ब्रह्मा भी कर्मके वशीभूत हैं तब यह मानना ही पड़ेगा कि लोकमें कर्मविपाक अर्थात् कर्मानसार फलकी प्राप्ति बड़ा बलवान् नियम है । जिस प्रकार लोहा चुम्बकसे आकर्षित होता है, उसी प्रकार जीव अपने कर्म द्वारा संसारको चारों गतियों अर्थात् मनुष्य, पशु, नारक और स्वर्गको योनियों में ले जाया जाता है। वही जीव अपने ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंसे ग्रहीत होकर अपना विस्तार और संहार करता रहता है । वह जगत्में कुन्थु (सूक्ष्म कीट) होकर हाथी भी होता है। इसीलिए कहा गया है कि जीवका आकार उसके शरीर प्रमाण होता है ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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