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________________ २३ ३. १८. १४ ] हिन्दी अनुवाद १७. मुनिदर्शन और उनका उपदेश उसके समोप ही लाल पत्तोंसे आच्छादित दूसरोंके ताप-दुःखको निवारण करनेवाला तल, सौम्य एवं रम्य एक अशोक वक्ष राजाके समान शोभायमान था। उसके नीचे एक स्वच्छ शिलापर बैठे हुए ध्यानारूढ़ मुनीन्द्रको उस भयंकर चोरों और परदारिकाओंको विनष्ट करनेवाले हिंसाचारी कोतवालने देखा। वे मुनि इहलोक और परलोक इन दोनों आशाओंके बन्धनसे रहित तथा राग और द्वेष इन दोनों दोषोंसे मुक्त थे। उन्होंने अपने मन, वचन और काय इन तोनोंको वश कर लिया था तथा इन तीनोंको क्रियाओंका निरोध कर डाला था। उन्होंने मिथ्यात्त्व, माया और निदान इन तीनों शल्योंको नष्ट करके अपनेको त्रैलोक्यका अलंकार बना लिया था। ऋद्धि, रस और सुख रूप तीन गारवको नष्ट करके वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य इन तीन रत्नोंसे विभूषित थे, तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायरूपी तुषके लिए अग्निके समान थे। आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन चारों संज्ञाओंका उन्होंने विशेषरूपसे विनाश किया था, तथा ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और निष्ठापन इन पाँच समितियोंके सद्भावको वे प्रकाशित कर रहे थे। उन्होंने मिथ्यात्त्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच आस्रव-द्वारोंका संवर कर लिया था, और वे अहिंसा, अचौर्य, अमृषा, अव्यभिचार और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतोंके भारको वहन करनेमें धुरन्धर हो चुके थे। वे पाँचों इन्द्रियोंको जीत चुके थे, तथा पंचमगति अर्थात् मोक्षगमनके स्वामा हो चुके थे। वे दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य तप और वोर्य नामक पंचआचाररूपी महापथपर गमन कर रहे थे। वे पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस (द्वोन्द्रियादिक जोव) इन छह जोवनिकायोंपर स्थिररूपसे दयावान् थे। वे सात प्रकारके भयरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए दिवाकर थे । वे आठ दुष्ट मदोंके विनाशक तथा अष्टम पृथ्वी निवास अर्थात् मोक्ष सम्बन्धी ज्ञानकी खान थे। उन्होंने सिद्धोंके आठ गुणोंपर अपना मन संयोजित कर रखा था, तथा वे नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यके पालक ब्रह्मचारी थे। उन्होंने दशविध धर्मका लाभ लिया था, तथा दश प्रकारके प्राणियोंको हिंसाका निषेध किया था। उन्होंने श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाओंका विचारपूर्वक पृथक्-पृथक् उपदेश दिया था, बारह प्रकारके तपोंका उद्धार किया था एवं तेरह प्रकारसे चारित्र्यका विभाजन किया था ॥१७॥ १८. मुनिका कोतवालको आशीर्वाद वे मुनि मद, मोह, लोभ, क्रोध आदि शत्रुओंके लिए रणमें दुर्जेय थे। उन्होंने तपश्चरणको साधनरूपी अग्निज्वालाओं द्वारा कामका पूर्णतः दहन कर डाला था। ऐसे उन मुनिवरको देखकर वह तलवर रुष्ट हो उठा। वह दुष्ट, धृष्ट, पापिष्ठ चिन्तन करने लगा-यह बिगड़ा हुआ, नंगा, दुःखसे पीड़ित हमारी इस भूमिको दूषित करके बैठा है । अतएव इस अपशकुनको कोई दूसरा देख पावे उसके पूर्व ही इस श्रमणको इस राजोद्यानसे निकाल भगाता हूँ। अपने मनमें भले ही कितना भी क्रुद्ध होऊ, किन्तु में कपटपूर्वक इसके बिना पूछे ही कुछ पूछता हूँ। वह फिर जो कुछ जैसा भी कहेगा उसमें उसी प्रकार दूषण बतलाऊँगा तथा इसे निरुत्तर कर देनेके पश्चात् मैं अपना रोष प्रकट करूंगा। मैं कुछ अयुक्त और दुरुक्त बोलूँगा और इस अपशकुनको निकाल बाहर करूंगा। इस प्रकार विचार करते हुए उस चोरोंके यमराजने मायाचारीसे साधु की वन्दना को। उसी समय मुनिका योग समाप्त हुआ था। यद्यपि उन्होंने जान लिया कि वह दुर्जन और भक्ति-हीन मनुष्य है, तथापि उन भगवन्तने उसे आशीर्वाद दिया और कहा-तुम्हें धर्मबुद्धि प्राप्त हो, तुम्हें आत्मगुण और मोक्षकी प्राप्ति हो, तुम्हें सुख हो और तुम्हारी भ्रान्ति भग्न हो । ठोक ही है, महर्षियोंको न निन्दासे क्रोध उत्पन्न होता और न प्रशंसासे हर्ष बढ़ता है। उनके लिए तृण और स्वर्ण भी समान होते हैं, तथा शत्रु व मित्र एक सदृश दिखाई देते हैं ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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