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________________ ३. १६. १३ ] हिन्दी अनुवाद ९१ पापोंका भार आ गया था । हम भूमिको खरोंचने को क्रीड़ा में रत होने लगे थे । हम छोटे जीवों के समूहको काट-काट कर खाते थे तथा यहाँ वहाँ घूमते-फिरते थे । ऐसी अवस्थामें हम दोनोंको चण्डकर्मा नामक राजाके तलाक ( नगर कोतवाल ) ने देख लिया । वह संशयमुक्त होकर चोरोंको मारने में लगा था। देखते ही उसने हमें अपने पास मँगा लिया और हाथके स्पर्शसे हमपर स्नेह दिखलाया । उसने हमें ले जाकर मेरे पूर्वजन्मके पुत्र राजा यशोमतिके भेंट कर दिया । राजाने अपने रूप और ऋद्धि भाजन, प्रेमसे स्निग्ध नेत्रोंसे बार-बार हमारी ओर देखा । उसने हमारा सूक्ष्म निरूपण किया तथा हमारे स्वरकी परीक्षासे हमें उत्तम लक्षणोंवाला पाया । फिर राजाने कोतवाल से कहा कि ये कुक्कुटके पिल्ले जो आँगनमें पानी पी रहे हैं, बड़े होने तक तुम्हारे ही सुन्दर भवन में रहें । जब ये बड़े होकर अपने नखोंसे आघात करने लगें, क्रोधसे अपने विदारक पैरोंको उठाने लगें, भूपर अपने शरीरको घुमाने लगें, इनके कण्ठके बाल ऊपरको उठने लगें, इनके नेत्र रक्त होकर चमकने लगें, उड़कर व रेंगकर कौतुक प्रकट करने लगें, और युद्ध में प्रवीण हो जायें, तब में अपनो पत्नियों, पुत्रों और नातियों सहित इनसे क्रीड़ा करूंगा और इनको युद्ध करते हुए देखूंगा। राजा के इस विधि-विधानको सुनकर उनके उस सेवकने उन्हें अपने घरपर रख लिया । यथासमय हमारी रात्रि उस स्थानपर पिंजड़े में रहते हुए व्यतीत हुई जहाँ प्रभात होनेपर ही उसी वनमें राजा आनेवाला था || १५ | १६. कुक्कुट युद्ध भूमिका वर्णन वहाँ हम दोनों एक ऐसे वनमें ले जाये गये जहाँ वृक्षोंके पत्त े दक्षिण दिशाको मन्द वायुसे चलायमान थे, तथा जहाँ अनेक पक्षीसमूहोंके कलरवसे उत्पन्न कल-कल ध्वनि हो रही थी । हमने देखा कि उस वन में स्वच्छ बिखरे हुए पानी के झरने झर रहे हैं जिनके द्वारा विस्तीर्ण कुण्ड, कूप और कन्दर भर रहे हैं। वह वन लहलहाती हुई वल्लियोंके पल्लवसमूहोंसे कोमल तथा एकत्र हुए पक्षियोंके लाखों पंखोंसे चित्रित दिखाई रहा था । वह वृक्षोंको चिकनी पुष्परेणुसे लाल हो रहा था । वहाँ बुकध्वनि करते हुए वानर फलोंके ऊपर झपट रहे थे । वहाँ दिशाओं में विचरण करती हुई यक्षिणियोंकी किंकिणियों का स्वर सुनाई पड़ता था । वहाँ के लतागृहों में स्थित होकर किन्नर क्रीड़ा कर रहे थे, वधुओं द्वारा आलापित गोतसे मृग मोहित हो रहे थे तथा नभ में देवताओं के विमान विचरण कर रहे थे। एक ओर सिद्ध और खेचर वहां के शिलातलोंपर आसन माये हुए थे, तो दूसरी ओर गम्भीर कीचड़ में शूकर लोट रहे थे । कहीं राजाके हाथी अपने दातोंसे चन्दन वृक्षों को छिन्न-भिन्न कर रहे थे, तो कहीं उनपर नगर-नारियों द्वारा चढ़ाये हुए हारोंके बन्दनवार चमक रहे थे । वहाँ अपनी-अपनी ध्वनि करते हुए शुक और रीछोंके शब्दका सौन्दर्य था तो कहीं हंसिनोका उसके बालहंस अनुगमन कर रहे थे । इस प्रकारके उस वनके बीच हिमके पुंज तथा फेनराशि के सदृश श्वेत एक राजभवन स्थित था। उस भवन के प्रांगण में एक पचरंगा और घुंघरूओंकी ध्वनियुक्त एक पटमण्डप रचा गया था वहाँ उस पिंजड़ेसहित मुझको स्थापित किया गया, जैसे मानो मैं यमके मुखका कीर होऊं ॥ १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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