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________________ ३. १५.४ ] हिन्दी अनुवाद ८९ हाय, मेरे ही नामसे मेरा हो बलि दिया गया । जब हमारा वध हो गया और ब्राह्मण सन्तुष्ट हो गये तब निश्चित ही धूर्त लोगों द्वारा जड़पुरुषों को धोखा दिया गया । अन्यके जिमानेसे कोई अन्य कैसे अघा सकता है ? फिर भी अन्यके नामसे वित्र मांस खाता है । है भद्र, क्या ऐसा हो सकता है कि कोई अन्य स्खलित होकर गिरे और किसी अन्यके ही नख ऐसे भग्न हो जायें, कि वे उसके शरीरको दुःखदायी हो उठें ? इस प्रकार उस भैंसे पशुका और मुझ अज ( बकरा ) का उस अग्नि ज्वालावलिके लगने से दोनों का ही जीव साथ ही निर्गमन कर गया। फिर हम दोनों माँ-बेटे उज्जैनीके चाण्डाल मनुष्यों के बाड़ेमें जाकर एक कुक्कुटी ( मुर्गी ) के गर्भ में उत्पन्न हुए। वह चाण्डालबाड़ा गायों के मुण्डों तथा बहुत सी हड्डियोंसे भरा हुआ था । वहाँ पशुओं के मृत शरीरों से गिरते हुए कोड़े सिमसिमा रहे थे । वहाँसे बहनेवाले रक्तका प्रवाह क्षिप्रा नदी तक पहुँच गया था । वहाँकी कुटियां काटे हुए सघन चमड़ोंसे छायी गयी थीं। वह स्थान मृगों और भैंसों के शृंगों की पंक्तियोंसे संकीर्ण था । वहाँका कटिभाग ( परिधि ) कड़े और उठे हुए केशोंसे धूसरित था । वहाँ पैरोंसे आहत हुई धूलि हवामें उड़ रही थी । वहाँ कंकालोंकी मालाएँ और कपाल बिखरे हुए थे । वहाँ अग्नि में पकाये गये कुत्तोंके रक्तका स्वाद कौवे ले रहे थे तथा माँस और चरबीसे मिश्रित धुआं उठ रहा था। जब हम पिल्ले ही थे तब हम धीरे-धीरे वहांसे निकलकर एक नये कचरे के ढेर में जा पहुँचे ||१३|| १४. हमारा चाण्डालबाड़ेमें निवास एक दिन कांपती हुई हमारी जननीको एक बिल्लीने गलेसे पकड़ लिया और उसकी हड्डियोंको जोरसे मोड़कर कसमसाते हुए खा डाला और उसे यमके मुखमें पहुँचा दिया। इधर चाण्डालिनने एक भला काम किया। उसने घरके कूड़े-कचरेको टोकनीमें भरकर उसी कूड़े के ढेरपर फेंका जहाँ हम दोनों पिल्ले थे । अतएव वह अनेक हड्डी, तृण और आंतोंके टुकड़ों का कूड़ा हमारे सिरपर आ पड़ा, जैसे मानो हमारा दुष्कर्म आ पड़ा हो । तब हम दोनोंने कुकुडू-कू की रट लगा दी, जिससे उस चाण्डालिनीका हृदय भी पिघल गया । उसने सोचा- अरे, मैंने जल्दी में हड्डियों के साथ-साथ मुर्गीके दोनों बच्चों को भी ला फेंका। निश्चित ही अपनी समस्त शक्तिसे प्रेरित होकर कूड़े के साथ इन्हें मैंने यहाँ फेंका है। उसने हमारा शब्द सुन लिया और फिर अपने पैरसे उस कचरे को हटाया। मेरे अंग उसके पैरसे छू गये । तब उसने हम दोनों पक्षियोंको हाथ में ले लिया और भीतर ले गयी । उसने अपने जिस घरमें हमें रखा वहाँ मृत पशुओंके शव सड़ रहे थे । अतएव वह ऐसा भयंकर था जैसे मानो हमारे किये हुए दुष्कर्मोंका विपाक हो । हाय, मैं जो किसी समय राजा था, जिसकी अन्य राजा वन्दना करते थे, उसीको एक चाण्डालिनने अपने पैर से ठुकरा दिया । शीत और उष्ण वायुसे पीड़ित तथा क्षुधा और तृष्णासे सन्तप्त होकर उस चाण्डालगृह में रहते हुए हम नाना दुःखोंको प्राप्त हुए || १४ || १५. हम राजप्रासादमें पहुँचे उस दुस्सह विपत्ति में पड़ने से हमारे अंग-अंग दुखने लगे थे, जिससे हम भूमितल पर लोटने लगे । वहाँ हम प्राणाहारी होकर दूसरे प्राणियोंको खाते हुए प्राणिवधमें प्रवृत्त होने लगे । अब हम सचित्र पंखों से चित्रित हो गये थे । हमारी चोंचें सुन्दर और चंचल हो गयी थीं । हमपर बहुत १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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