________________
३. ९. ११ ] हिन्दी अनुवाद
८३ अज-मिथुनरूप मेरे माता-पिता एक बार कामातुर होकर क्रीड़ा कर रहे थे, तभी कुसुमावली रानीका पति आखेटके लिए गया । वह समस्त वनमें भ्रमण करते हुए पसीना-पसीना हो गया, किन्तु उसे कोई पशु नहीं मिला । लौटते-लौटते उसने उस अज मिथुन को देखा और उन्हें अपने तीक्ष्ण खड्गसे क्षणमात्र में दो टुकड़े कर दिया। उसने गर्भस्थित छागको जीवित देखा। वे दोनों बकरा-बकरी तो दो खण्ड होकर रोते-रोते मर गये, किन्तु राजाने गर्भाशयमें मेरे आठों अंगोंको काँपते हुए ( छटपटाते ) देखा ॥७॥
८. कात्यायनी देवीको भैंसेकी बलि राजाने विस्मयके साथ बकरीका उदर फाड़कर मुझे बाहर निकाला और अपने अजरक्षकको सौंप दिया। हे चन्द्रमुख राजन्, सुनिए, मैं कालक्रमसे बड़ा हुआ। वहाँ मैं अज्ञानके वशीभूत हुआ अपने ही पूर्वजन्मके माता, श्वसा और सुताओं तथा निज नातियोंकी सेवामें रहने लगा । यूथनायक बकरोंको भी अपनी तीव्र झड़पसे पराजित करता हुआ जब मैं वहाँ रहता था तब एक दिन राजाने देवोके आगे कहा-हे भट्टारिके, महिषासुरके विशाल देहका विदारण करनेवालो भगवति, मुझे आखेटमें सफलता प्राप्त करा दे, तो हे सिंहवाहिनी, मैं तुझे भैंसेकी बलि दूंगा । उस दिन राजाको वनमें पशुओंका आखेट प्राप्त हुआ, और वह पूर्ण-मनोरथ होकर घर आया। वहां उसने एक मोटे भैंसेको मारकर और उसके माँसकी रसोई (भोजन) बनवाकर देवीको पूजा को। फिर रसोइयेके द्वारा मैं वहां लाया गया। वहाँ जो मैंने सूंघा तो वायुके नासिकामें प्रवेश होते ही मुझे ज्ञात हो गया कि वह माँस-खण्ड उन विकराल कुत्तोंका जूठा है। मैं वहाँ एक लम्बी डोर ( रस्सी ) से बँधा हुआ खड़ा था, जैसे मानो जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए अपने घोर कर्मोंसे जकड़ा होऊँ। पृथ्वोनाथने ब्राह्मणोंको मांस, रस, घृत और क्षीरके प्रवाहसे भोजन कराया । "हे परमेश्वरि, शूल-कपालधारिणी, महिष-मांस-वसा और रुधिरप्रिया कात्यायनी, मुझपर प्रसन्न होइए।" ऐसा कहकर राजाने द्विजोंको दान दिया ।।८।।
९. पिण्डदान क्रिया सम्पन्न तथा अमृतमतीको दुर्दशा राजाने अनेक विप्रोंको भैंसेके मांसको प्रचुर घीको धारासहित तथा मद्य, सूप आदि बहुत रस, जो क्षुधाका भलीभाँति निवारण करनेवाले हैं, ऐसे भोज्य-पदार्थ प्रदान किये । इसके अतिरिक्त कंकण व नाना प्रकारके आभूषण भी दिये तथा गोदान और भूमिदान भी किया। फिर राजाने कहा, ये सब वस्तुएँ मेरे स्वर्गस्थ पूज्य पिताको प्राप्त होवें । मैं विचारने लगा कि मैं तो यहाँ दृढ़ रज्जुओंसे वेष्टित-मात्र हूँ। भूख, तृष्णा और अग्निसे परितप्त हूँ, भूषणरहित हूँ तथा विभव और शृंगारसे वंचित हूँ। यद्यपि मेरे पुत्रने व समस्त अन्तःपुरकी नारियोंने विनयसे मुझे पिण्डदान किया है तथापि जब इतने पासमें स्थित होनेपर भी मुझे कुछ भी नहीं मिला तब जो स्वर्ग में स्थित है, वह कैसे कुछ पावेगा ? फिर राजाने अपनी मौसियों सहित भोजन किया तथा मेरे पुत्रने स्वजनोंका मनोरंजन किया। मैं समस्त अन्तःपुरको वहाँ देख रहा था, किन्तु मेरो प्रिय गृहिणी अमृतमती मुझे दिखाई नहीं पड़ी। उसी समय एक दासोने अपने नासिकापुट पर हथेली रखो और कहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org