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________________ २. ३७.६ ] हिन्दी अनुवाद ७१ 1 कूकरपर प्रहार किया । उसका सिर फटकर दो टुकड़े हो गया और वह भी मर गया । विधिने कर्मों का विकार विचित्र बनाया है । मेरे पूर्वजन्मका पुत्र वह राजा मेरा शोक करने लगा । हाय ! मेरे घरकी लक्ष्मीका भूषण मयूर मर गया । हाय मयूर, मेरे घरकी पुतलीपर जब तू चढ़ जाता था तो वह केशकलापयुक्त दिखाई देने लगती थी । जब तू प्रासादके शिखरपर बैठ जाता था तब तेरे सम्मुख ध्वजपटकी शोभा कुछ नहीं रहती थी। हाय, तेरे बिना कौन मेरे हृदयको आकर्षित करेगा, और कौन घरकी वापीके हंसके साथ चले फिरेगा ? तेरे न रहनेपर अब यह रंगावली और विचित्र कुसुमावली शोभायुक्त दिखाई देने लगी । कामिनियोंके पैरोंके नूपुरोंकी झंकार सुनकर अब तेरे बिना शरीर हिला हिलाकर कोन नाचेगा ? हाय, मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मानो मेरे पिता यशोधरको मृत्यु आज ही हुई हो । हाय देव, मैंने अपने कुत्ते को भी क्यों मार डाला ? हाय, आज शूकरगण काँसके दलोंका भक्षण करें और स्वच्छ जल पियें । करोंदों के जालयुक्त कटीले वनमें निवास करके अब उस कुत्तेके मर जानेपर तुम सरोवरोंके कर्दमों में सुखका अनुभव करो । जिन सारंगोंने वनमें दुर्गं बनाकर अपनी रक्षा की थी वे अब स्वच्छन्द हो जायें । इस कपिल श्वानके पश्चात् अब कौन श्रेष्ठ मृगमारक बचा ? ||३५|| ३६. यशोधर और चन्द्रवतीके जीव नकुल और सर्पकी योनियोंमें इस प्रकार शोक करके राजा यशोमतिने उस मयूरको छोड़ा और दोनोंकी मरण संस्कार विधि सम्पन्न की । जिस प्रकार उसने अपने पिता और अपने पिताकी जननीके लिए किया था उसी प्रकार उस मयूर और कूकरका भी जल तर्पण और पिण्डदान किया । लोग पितरोंके लिए जल और भोजन स्थापित करते हैं, तथापि पितर इनका कोई अनुभव नहीं करते । फिर अखाद्य वृक्षों और पत्थरोंसे प्रचुर जहाँ साँभर, बबूल और खदिरके झाड़ ही उगते थे, जो निर्जल था तथा जहाँ वायुमें धूलकी रज उड़ती रहती थी ऐसे सुवेलगिरिके पश्चिम भाग में स्थित वनमें मेरा जन्म एक लूले नकुलके द्वारा कानी नकुलीके गर्भ से दैववशात् हुआ। वह नकुली भूखी, दुःखी और सूखे थनोंवाली थी। मैं उसके स्तनको चाटता था, किन्तु मुझे कोई तृप्ति नहीं मिलती थी । दूधके बिना मेरी जठराग्नि जल उठी । तब कहींपर मैंने एक सर्पको पकड़कर निगल लिया । मुझे उसका स्वाद मिल गया । तब मैंने अनेक सैकड़ों नागोंका भक्षण कर डाला । जैसे मानो धर्मंकी जड़ोंको खा डाला हो । मैंने उन्हें उनके बिलसे निकालकर कैसे खाया जैसे मानो अत्यन्त भूखे गरुडने उन्हें खाया हो । वह कुत्ता भी मरकर वहाँ सर्प हुआ। वह वहाँ दुर्धर सरड़ों ( छिपकलियों ) तथा चूहों के भक्षण में रत रहने लगा। एक बार जब वह वनमें क्रीड़ा करके अपने बिलमें प्रवेश करने लगा तब मैंने उसे जा पकड़ा, और उसकी पूँछके अग्रभागको अपने मुँह में लेकर उसे खाना प्रारम्भ कर दिया ||३६|| ३७. नकुल और सर्पका संघर्ष और मरण वह सर्प अपना मुँह पलटकर विषको ज्वाला छोड़ने लगा तथा अपने दृढ़ और विकराल फनसे फुंकार मारने लगा । मैं उसका भक्षण करता था और वह मुझे डस रहा था । पीछेसे एक विज्जू मेरा माँस खाने लगा । वह मेरे शरीरके बन्धनोंको तड़ातड़ तोड़ने लगा । मेरी सघन first तड़ातड़ मोड़ने लगा । मेरे चंचल चमँको वह चड़चड़ फाड़ने लगा तथा मेरे रक्तको जल के समान गटागट पीने लगा। इस प्रकार उस विज्जूने मेरा विनाश कर डाला और मैंने अपनी माता जीव उस विषधर सर्पका भक्षण कर डाला । इस पृथ्वीतलपर कौन ऐसा है जो कर्मोकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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