SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७ २. ३२.५] हिन्दी अनुवाद ३०. मेरा यशोमति राजाको उपहार तथा मेरे पूर्वजन्मको माता चन्द्रवतीके मरणका वृत्तान्त मांसाहारसे मेरा पालन-पोषण हुआ और देहके साथ-साथ मेरे पापको भी वृद्धि हुई। मेरा पंखसमूह कैसा हो गया जैसे मानो उत्तम पचरंगी मणि-माला हो। मेरी रूपश्रीको देखकर तलवरने कहा कि उज्जयिनीपरीमें जाकर में यशोधरके पत्र क्रीडाप्रेमी राजा यशोमतिको भेंट करूँ। और यहाँ इसी बीच वह मेरे पिताको पत्नी ( पूर्वजन्मकी माता चन्द्रवती) जो कृष्णके चरणकमलोंकी भक्त थी, जो द्विजों द्वारा भोजन कर लेनेपर शेष बचे हुए मांसका ही आहार करतो थी, जो ब्राह्मणोंको अग्रहार और शासन-पत्र देती थी, नियमसे देवताओंको पूजा करती थी तथा सैकड़ों भेड़ोंको मारकर बलि देती थी, जो गंगानदीके जलसे अपनेको पवित्र करती थी, जो अपने घरू-पुरोहितोंको सिर नवाकर प्रणाम करती थी और अज और हरीन्द्रके मांससे पितरोंको सन्तुष्ट करती थी तथा मनिवरोंके आचरणको निन्दा करती थी, उज्जयिनीमें उस रानीकी सुखमय योनिमें विषके रससे शरीर मूछित हो गया और तत्पश्चात् उस मन्दमती मेरी माता चन्द्रवतीका जीव वहाँसे चल बसा ॥३०॥ ३१. चन्द्रवतीका जीव कूकर-योनिमें पहुंचा और वह कूकर भी राजा यशोमतिके प्रासादमें उपहारस्वरूप पहुँच गया वह रानी चन्द्रवती अपने किसी कर्मवश बलवान् तथा पवनवेगसे दौड़नेवाली कूकरीसे करहाड़ नगरमें कूकररूपसे उत्पन्न हुई। यह कूकर चंचल, कुटिल एवं वज्रके समान कर्कश नखोंवाला था। उसकी सिंहके समान आँखोंसे विकराल किरणें निकलती थीं। उसकी चपलता उसके सिरपर टेढ़े चलायमान बालोंसे प्रकट होती थी। उसका गला लम्बे बालोंसे जटिल था। उसका उरस्थल विशाल तथा उसका पृष्ठभाग विस्तृत था। किन्तु कटि-भाग क्षीण होनेसे मालम पडता था मानो विधाताने उसे बीच में अपनी मदीमें पकडकर बनाया हो। उसकी आंखें पिंगल चंचल और चमकीली थी। उसका मुख बहुत-से शूकरोंको चबा जानेवाला था। उसके दांतोंकी पकड़ यमपुरकी करौंतके सदृश थी। इस प्रकार वह रानी श्वानके भवमें जा पहुँची। किन्तु उसे अपने पूर्वजन्मकी राज्यलक्ष्मीका लेशमात्र भी स्मरण नहीं था। यशोधर कहता है कि हे राजन्, उस कुत्तेको भी उसी प्रकार पाप-बुद्धि यशोमतिके पास उपहाररूपसे लाया गया जिस प्रकार मैं लाया गया था। एक दिन हम दोनोंको राजाने देखा और उस मेरे पुत्रके अंग हर्षसे पुलकित हो उठे । उसने हम दोनोंका अपने हाथसे स्पर्श किया और दोनोंसे बहुत लाड़-प्यार दिखलाया। निपुण विधाताने इस मयूरको इतना मनोहर कैसे बनाया ? वह तो कमलनयनी वनलक्ष्मीके केशकलाप सदृश है। ।३१॥ ३२. कुत्तेका शौनिकको समर्पण और मेरा राजप्रासादमें क्रीडन यशोमति राजा विचारने लगा-यह कुत्ता भी मुझे अच्छा लगता है। यह ऐसा प्रचण्ड है कि कात्यायनीके सिंहसे भी भिड़ सकता है । यह वायुके वेगसे दौड़नेवाला होता हुआ हिरणको भी छू सकता है और वेगसे दौड़कर उसपर अपना मुँह मार सकता है। इससे कोई शेर या शूकर बच नहीं सकता; फिर अन्य कौन इसके आगे दौड़ सकता है ? राजाने मुझे तो अपने घरका आभूषण बना लिया और उस कुत्तेको सुरक्षित रखनेके लिए अपने शौनिक ( कसाई ) को समर्पित कर दिया। उसने उस शीघ्र अकाण्ड मृत्युसे मरनेवाले कुत्तेको गले में सोनेकी सांकल बांधकर रखा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy