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________________ २. २९. ११] हिन्दी अनुवाद अन्यत्र भाग जाते हैं। जहाँ विकराल दाढ़ोंवाले वराह शूलाक्षों ( सिंहों ) के साथ युद्ध करते हैं। जहाँ वनगर्दभ कन्दोंसे युक्त वनअटवीमें दिखाई पड़ता है और जहाँ सिंह-शावकोंके द्वारा पथिकोंका मार्ग संकटमय हो रहा है। जहाँ शेर वृक्षोंके ठूठोंको विदारित करते हैं। जहाँ भील हरिणोंको मारते हैं । जहां गम्भीर अटवीमें गृद्ध परिभ्रमण करते हैं तथा शुकसमूह सदैव चुमचुमाते हैं और जहाँ लताओंसे लिपटे हुए वृक्ष मानो आलिंगन करते हुए क्रीड़ा कर रहे हैं। ऐसे उस सघन वृक्षोंसे युक्त वनमें मुझे मेरे अशुभ कर्मने दुःखपूर्ण मयूर-कुलमें ला पटका ॥२७॥ २८. मातासहित मेरा व्याध द्वारा ग्रहण जब मैं उस अत्यन्त दारुण और भोषण वनकी अटवीमें मयूरीके गर्भ में उतरा तब, हे बाप, उदराग्निसे मैं ऐसा जला जैसे सज्जन पुरुष दुर्जनोंके वचनोंसे सन्तप्त होते हैं। वहाँ मुझे दुःखोंने ऐसा सन्तप्त किया कि, क्या कहें, जैसे नारकीय जीव कड़ाहमें तपाया जाता है। फिर यद्यपि मैं गभंसे बाहर निकला तथा मेरी माता मयूरीने अपने पंखोंसे ढंककर मेरी रक्षा की, और यद्यपि कँटीले वृक्षोंसे दुर्गम तथा रेतीसे कर्कश भूमिपर मैं अपना पाँव कभी देता था कभी नहीं, और यद्यपि उस वनमें विषैले जन्तुओंसे डसे जानेसे मैं डरता था, किन्तु माताके द्वारा सुरक्षित होकर विचरण करता था। कृमिकुलको चोंचसे चूरित करता और अपने पेटको भरता था। तथापि एक दिन जब मेरी माता वनमें भ्रमण करती हुई क्रोड़ा कर रही थी तब एक व्याधने आकर उसे मारा। उसने उसे कपड़े में बांध लिया और फिर उसने मुझे भी पिटारीमें डाल लिया। यद्यपि मोर चीत्कार करता है, किन्तु क्या वह मांसके लोभी पारधीके हृदयको स्पर्श कर पाता है ? वहाँ उस पिटारीमें मैं अपने शरीरकी गर्मी व उष्णतासे जैसा सन्तापित हुआ उसका वर्णन परमेश्वरी वागीश्वरी भी नहीं कर सकती ॥२८॥ २९. माताका किसी अन्यको समर्पण और मेरी सुरक्षा वह व्याध हमें लेकर ग्राममें आया। मेरी माता मर चुकी थी, अतएव उसने उसे आरक्षी अधिकारीको दे दिया और मुझे उसने घर लाकर एक पिंजड़े में डाल दिया जिसमें घरको बिल्ली आदिसे मेरी रक्षा हो सके । मेरा हृदय दुःखसे पीड़ित हुआ। फिर उस वनचरकी गृहिणी बोली, भूखसे मेरा शरीर काँप रहा है, थर्रा रहा है, और इस छोटे-से मयूरसे मेरा एक कोर भी नहीं भरेगा। फिर ये बाल-बच्चे क्या खायेंगे ? मेरे हाड़। और हे भील, बतला तू क्या खायेगा? तूने बड़ी मयूरी दूसरेको दे डाली। रे शबर, तू यहाँसे चला जा और घरमें मत आना । अपनी भार्याकी इस ढंगकी बातें सुनकर उस किरातको सहसा एक बात सूझ पड़ी। व्याधने मुझे ले जाकर बेंच दिया और उसी आरक्षीने एक प्रस्त ( पायली) सत्तू देकर खरीद लिया। किन्तु उस आरक्षीने मुझे खाया नहीं, प्रत्युत घोर बिल्लियोंसे मेरी रक्षा की। उस तलवरके घरमें मैं सरोवरमें हंसके समान अच्छा सुन्दर हो गया। मैं धानके कण खाता और सुमधुर शब्द-ध्वनि द्वारा लोगोंका अनुरंजन करने लगा ॥२९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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