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२. २१.९ ]
हिन्दी अनुवाद हो? हे अम्मी, भले ही मेरा जीवन समाप्त हो जाये, तो भी मैं अन्य जीवका घात नहीं करूंगा। इतना कहकर मैंने तलवार निकाली और उसे अपने उत्तम कुण्डलों और मुकुटधारी सिरपर ला रखा । तब मेरी माताने हाहाकार किया और पासवाले लोगोंने मुझे रोका। फिर वृद्धमाता मेरे पैरोंमें पड़ गयी और बोली-हे पुत्र, मैंने असत्यको सत्य बतलाया है। यदि तू सचेतन जीवका बलिदान नहीं देना चाहता तो अन्य अचेतनका ही दे दे जो प्रहारकी वेदनाको अनुभव न करे । इसपर मैं अपनी आंखें बन्द कर रह गया । परम्पराको जाननेवाली मेरी अम्मादेवीने गद्गद स्वरमें जो कुछ कहा वह यद्यपि अधर्म ही है तो भी मैं उसे करूंगा और फिर उसके विपरीत स्वप्नके मिससे व्रत धारण करूँगा।
अम्माने प्रसन्न होकर हमारे लेपकारको कहलवा भेजा और वह पीठ ( आटे ) का सुन्दर कुक्कुट बना कर ले आया ॥१९॥
२०. आटेका कुक्कुट और उसका बलिदान वह जो आटेका कुक्कुट बनाया गया वह इतना सजीव सा था जैसे मानो वह चल रहा है, फड़फड़ा रहा है, उड़ रहा है, मुड़ रहा है, आगे बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है । जब वह मेरी दृष्टिमें पड़ा तो ऐसा लगा जैसे मानो उसे देवने सजीवरूपसे गढ़ा हो। फिर पटह, शंख, ढोल, तबला और नगाड़ोंके वाद्य सहित उसकी नाना वृक्षोंके फूलोंसे पूजा की गयी और दधि, वन्दन व चन्दनलेपसे अर्चित किया गया और उसे मेरे परिवारके लोगोंने कुलदेवीके आगे निवेदित किया और उसका घात किया । मेरी माताने, उसपर कुंकुमजल छोड़ा और उसे ही उसका बहता हुआ रुधिर माना । फिर उसी पीठको कुक्कुटका मांस मानकर खाया। इस प्रकार समस्त अपुण्यका समभ्यास किया (जोवबलिदान रूप पापका क्रियाकाण्ड पूरा किया)। जिस प्रकार उन्होंने मुझे ब्राह्मणव्रतमें दीक्षित घोषित किया और मांस समझकर उस आटेके मुर्गेको खाया उसी प्रकार मुझे उस पापका कलंक लगा, क्योंकि जो कुछ मनमें कल्पना की जाती है क्या उसी प्रकार उसका फल नहीं होता?
तत्पश्चात् मैंने सद्भावपूर्वक उस भयदायिनी जोगिनीको नमस्कार किया और कहा-"हे देवि, तेरी ही दृष्टिसे और सन्तोषसे लोग सन्तापसे मुक्त होते हैं ॥२०॥
२१. देवीकी स्तुति, मेरा वैराग्य तथा रानीको आशंका मैंने प्रार्थना की कि-'हे देवि, मुझे और अधिक जंघाबल, बाहबल और अचलजीवन प्रदान कीजिए। मुझे इस दुस्तर वनमें विपत्तिसे बचाइए। हे सुरेश्वरि, मेरी सब प्रकारसे रक्षा कोजिए।" इस प्रकार मैं देवीकी शरणमें प्रविष्ट हुआ। मैं यह नहीं जानता था कि मेरा मरण समोप ही है । इस प्रकार देवीकी अर्चना करके मैं अपने घर गया और श्रीकलशोंसे मेरा स्नान कराया गया। किन्तु वैराग्यवश मैंने अपने पुत्रको राज्यपर स्थापित किया और स्वयं वनवासको जानेका विचार किया यह सोचकर कि मैं वहां तप करूँगा। तथापि देवने इसमें भी बाधा डाली। जब मैंने अपने प्रिय पुत्रको राज्य समर्पित किया तभी मेरी पत्नीने अपना कार्य सोच लिया। उसने कल्पना कर ली कि जो मैंने गतरात्रिमें जारके साथ क्रीड़ा की थी उसे इसने देख लिया है। नहीं तो यह सामन्तों, मन्त्रियों, भूमि आदि परिग्रहको छोड़ कर तपश्चरणकी आकांक्षा क्यों करता है ? निश्चय हो मैंने इसको परीक्षा कर लो और शरीरके लक्षणोंसे इसका मन जान लिया।
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