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________________ २. १३. १५ ] हिन्दी अनुवाद सिन्दूरपुज एकत्र किया गया हो । उस सूर्योदयसे लोग प्रसन्न हुए। वह सूर्य ऐसा दिखाई देता था जैसे मानो आकाशलक्ष्मीने लालछत्र धारण किया हो, अथवा वह उदयगिरिका चूड़ारत्न हो। अथवा मानो रक्तके लोभी कालने अपना चक्र घुमाया हो और जगत्को फाड़ डाला हो। वह दिशारूपी कामिनीका कुकुमपिण्ड व सन्ध्यारूपी पद्मिनीका लालकमल हो। उसो समय जयमंगल तूर्योकी ध्वनि तथा वन्दीजनोंके स्वरोंसे में जाग उठा। मैंने तत्क्षण अपने शरीरको शुद्धि की तथा परिजन और सेवकजन मेरे लिए प्रसाधन ले आये । उसी अवसरपर मैंने मन में चिन्तन किया कि अब मुझे राज्यसे क्या और भूषणोंसे क्या। जो अंगविलेपनकी सामग्री है वह काममूलक है और उसका समस्त फल मैंने रात्रिको देख हो लिया है। किन्तु यदि मैंने आभरणोंका त्याग किया तो वह बात लोगोंके बीच फैल जायेगी-राजाके लिए क्या अन्तःपुर अमनोज्ञ हो गया जिससे वे अत्यन्त उदास मन दिखाई देते हैं ? इस प्रकार जो मेरे समीपवर्ती विद्वान हैं वे मेरे चित्तका समस्त वृत्तान्त समझ लेंगे। ऐसा विचारकर मैंने अंगविलेपन कर लिया, किन्तु वह ऐसा लगा जैसे मानो मेरे अंगमें दुःखोंका समूह आ लगा हो। यदि किसी प्रकार देवी इस बातको सुन लेगी तो वह स्वयं भी तत्काल मर जायेगी और मुझे भी मार डालेगी। हे शत्रुविनाशक राजन्, समस्त शुभ और अशुभ, जीवन और मरण, शत्रु-द्वारा दिये गये घात, लाभालाभ, मुट्ठी में रखी हुई वस्तु, खोयी हई वस्तु, प्रवासीका सुख-दुःख, ये सब बातें वे विशालबुद्धि योगी जान जाते हैं जिनके हाथ में समस्त सिद्धि बसी हुई है। किन्तु जो अपने ज्ञानसे इतना सब जान सकते हैं वे भी स्त्रीके चित्तको नहीं जान पाते। हाथी बांधा जा सकता है, अश्वका भी अवरोध हो जाता है, संग्राममें शत्रुकी सैन्यपर विजय भी प्राप्त की जा सकती है, किन्तु अन्यपुरुषमें आसक्त हुई दुष्टचरित्राके चित्तको कोई नहीं जान पाता ॥१२॥ १३. राज्यसभामें मातासे स्वप्नका बहानाकर यशोधरका राज्यत्यागका विचार उपयुक्त विचार करते हुए मैं ( यशोधर ) मनमें विषायुक्त होता हुआ राज्यसभामें गया और स्वर्णमय राज्यसिंहासनपर आसीन हो गया। मेरे दोनों ओर चमर डुलने लगे, जैसे मानो अनेक सहस्र दुःख मंडरा रहे हों। सभामण्डपमें कुबड़े और बौने खूब कौतुककारी नृत्य करने लगे । वीणा और बांसुरी तथा गीतोंकी ध्वनि होने लगी और बन्दीजन स्तुति गान करने लगे। ये सब बातें यद्यपि बहुत सुखकर होती हैं, किन्तु मेरे विरक्त हो जानेके कारण वे मुझे दुःखकर प्रतीत हई। इसी समय सरस पस्तकवाचन प्रारम्भ हो गया जो लोगोंके मन और कानोंको दर्ष प्रदान करता है । उसी अवसरपर स्वर्णमय दण्डसे विभूषित करयुक्त प्रधान प्रतिहारीने ऐसे भटों, सामन्तों व मन्त्रियोंका प्रवेश कराया जिनकी कीर्ति जगत् में निरन्तर फैल रही थी। उन सब श्रेष्ठ पुरुषोंने अपने-अपने मुकुटोंके अग्रभागपर हाथ जोड़कर मेरे चरणयुगलमें नमन किया। मैंने उन नरपतियोंको प्रणाम करते देखा, जैसे मानो मेरे कुमित्र ( शत्रु ) मुझपर आक्रमण कर रहे हों। वे सभी नरेन्द्र भूमितलपर बैठ गये, जैसे सुकवियों द्वारा रचित सघन अर्थयुक्त काव्य सरस्वतीके पीठपर आश्रित होते हैं। उसी बीच मेरी जननी वहीं आ पहुँचौं जहाँ में सिंहासनपर आसीन था। मैंने अपने चित्तमें तपश्चरणका उपाय तो सोच ही लिया था अतः मैंने मिथ्या स्वप्नका वृत्तान्त कहा। पहले मैंने अपने कालेबालोंयुक्त शीशसे माताका नमन किया और फिर उन्हें कह सुनाया कि--हे माता ! आज रात्रिको भुजशाली मैं स्वप्नमें अट्टालिकासे अकस्मात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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