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________________ २.१२. ४ ] हिन्दी अनुवाद प्राणप्रिया परपुरुषका रमण करके पसीना बहाते हुए आकर मेरे भुजपंजरमें प्रविष्ट होकर सो गयी, जैसे मानो किसी मूर्खने विद्वानोंकी सभाका सम्मान किया हो । वह दुष्टा मानो विषैली नागिनी थी तथा मुझ मृतकका स्वाद लेनेवाली थी, जैसे शाकिनी मृत शवका स्वाद लेती है। जिस प्रकार खुजलीको खुजानेसे पहले सुख होता है किन्तु पश्चात् दुःख, उसी प्रकार रतिरमणसे थोड़ा-सा सुख मिलकर बहुत दुःख उत्पन्न होता है। जहां समस्त शरीरका संघर्षण हो वहाँ भला कौनसे सुखका अवसर है ? आभूषणोंका भार देहका दमन करता है। नृत्य आहारको पचानेका साधन है। शरीरका लावण्य अशुद्ध रस है तथा स्नेहवश बहुतसे दुःखोंका कारण हो जाता है । गीतके मिससे विरही रुदन करता है । प्रियाका सम्भाषण मर्म स्थानोंका छेदन करता है। प्रेयसीके दर्शनमात्रसे कामज्वर बढ़ता है तथा उसका आलिंगन देहपिण्डको पीडाकारी सिद्ध होता है । निरन्तर आसक्तिसे तीव्र प्रेम ताप उत्पन्न करता है। प्रेमसे ईर्ष्यारूपी अग्नि भी उत्पन्न हो जाती है। उसी ईर्ष्याग्निसे कामी पुरुष दग्ध होता है, किलकिलाता है तथा उत्तरोत्तर ही ज्वालासे जलता है। स्त्री अपने प्रेमीको मार डालती है और फिर आप भी मर जाती है तथा घोर संसारमें भ्रमण करती है। इन्द्रिय-सुख एक महान् दुःख है। जीवके लिए बड़े दुष्कर्मका घर है तथा महान् बाधाएं उत्पन्न करता है । भला पण्डितपुरुष इस में कैसे पड़ जाता है ॥१०॥ ११. मानव-शरीर सम्बन्धी विचार मनुष्यका शरीर दुःखकी पोटली है जिसे जितना धोओ उतना ही अत्यन्त अशुद्ध होता जाता है। चाहे जितने सुगन्धो पदार्थ इसपर मलो वह सुरभित नहीं होता, किन्तु वह सुगन्धी द्रव्य हो मल बन जाता है । निरन्तर पोषण करनेपर भी वह स्थिर रूपसे बलशाली भी नहीं हो पाता। इसे चाहे जितना सन्तुष्ट करो वह अपना ( आत्मज्ञाता) नहीं होता बारम्बार चुराये जानेपर भी वह गृहका एक पात्र ही बना रहता है। भूषणोंसे अलंकृत किये जानेपर भी वह शोभायमान नहीं बन पाता। उसे जितना सजाओ वह उतना ही भीषण बनता जाता है। उसे जितना ही बचाओ उतना ही वह दुःखको दुकान बनता जाता है। सम्मान करते-करते ही वह घिनौना हो जाता है। बारम्बार उपदेश दिये जानेपर भी वह मरणसे भयभीत रहता है। दीक्षित होकर भी साधुओंपर गुर्राता है। पुनः-पुनः सिखानेपर भी गुणोंमें रुचि नहीं रखता। दुःख भोगभोगकर भी उपशम भाव धारण नहीं करता! बारम्बार रोकनेपर भी पाप करता है, और चाहे जितनी प्रेरणा करो वह धर्माचरण नहीं करता। उसका चाहे जितना मालिश करो वह कर्कश ही बना रहता है और रूखा रहता-रहता व्याधिग्रस्त हो जाता है। बारबार तैलादिका मर्दन करनेपर भी वह वातरोगसे घुलने लगता है, और शीतल सिंचन करते-करते भी पित्तके प्रकोपसे जलने लगता है। उष्ण पदार्थोंका सेवन करते करते भी वह कफ-खाँसीकी व्याधिसे ग्रसित हो जाता है तथा पथ्य करते-करते भी कुष्ट व्याधिके वशीभूत हो जाता है। यह चर्म से आवद्ध होते हुए भी कालक्रमसे सड़ने लगता है, तथा रक्षा करते-करते हो यमके मुख में जा पड़ता है। इस प्रकार तामसी मनुष्य मरकर नरकमें जाता है। हमारे सदृश जड़पुरुष ही तरुणी स्त्रीके वशीभूत होकर घरद्वार में संलग्न रहता है ।।११।। १२. प्रभात होनेपर यशोधरके विचार यशोधरने विचार किया कि कल ही इस राजधानी, परिजनों तथा राज्यश्रीको छोड़कर में गहनबनका आश्रय लूंगा । में तप करूंगा और उन मुनिव्रतोंको धारण करूंगा जिनके प्रभावसे नर, नाग और देव भी पैर पड़ने लगते हैं। जब मैं ऐसा चिन्तन कर रहा था तभी सूर्य अपनी लालिमा फैलाता हुआ उदित हो गया, जैसे मानो नये पल्लवोंसहित कंकेलीवृक्ष हो, अथवा जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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