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२. १०.४]
हिन्दी अनुवाद इसपर मुझे रोष आ गया और मैंने बिजलीके समान, युद्धमें रुधिरके प्रवाहसे सिंचित शत्रके हाथियोंके मस्तकसे निकले मोतियोंसे दतोली तलवार निकालकर हाथ में ले ली। मैं प्रहार करने ही वाला था कि मेरे मन में विचार उत्पन्न हो उठा--अरे मैंने जिस खड्गसे शत्रुके सैन्यका विनाश किया उससे अब कापुरुषके समान क्या स्त्रोका हनन करूं? ऐसा चिन्तन कर मैंने क्षमारूपी जलसे अपने रोषरूपी अग्निको शमन किया और सुन्दर चित्रोंसे युक्त अपने शयनागारमें जाकर अपनी शैयापर लेट रहा। मैं अपनी प्रिय पत्नीके व्यापारका स्मरण करने लगा। हाय ! उसने एक भी बात अपने हृदयमें धारण नहीं की-न कुल, न लक्ष्मी, न मैं, और न अपना पुत्र । हाय ! यह कैसी देवीको मतिभ्रष्ट हो गयी?
ठीक ही है, सहारा देने योग्य आम्रवृक्षके ऊपर चढ़कर भी लता नीचेको लटक जाती है तथा किसी अन्य होन जातिके रूक्ष व कटीले वृक्षका चुम्बन करने लगती है ॥८॥
९. नारीचरित्रके संस्मरण ( गोपवती और वीरवतीके दृष्टान्त)
मनोहर देवनदो ( गंगानदी ) में चन्द्रका प्रतिबिम्ब भी दिखाई देता है तथा चण्डालका भी । वृक्षकी शाखापर जैसा सलिलगति बालमराल रमण' करता है वैसा काक भी । जिस प्रकार सूर्य पद्मिनीपर अपने चरणों ( किरणों) से आघात करता है वैसा कुरूप मेढक भी । स्त्री सन्ध्याके समान बड़े जल्दी अपना रंग ( अनुराग ) छोड़ देती है। धनुर्यष्टिके समान गुण (प्रत्यंचा ) के साथ-साथ कुटिल भी होती है। वह विषशक्तिके समान मारणशील तथा अग्निकी धूमावलिके सदश घरको मैला करती है। जिस प्रकार नदीका वेग नीचेकी ओर होता है वैसे ही स्त्रीकी मति है। कौन ऐसे हैं जो नारीके रूपसे विनष्ट न हुए हों?
गोपवती नामक स्त्रोने अपनी सौतका सिर काटकर अपने पतिके सामने रख दिया और कहा--'ले इस प्रतिपत्नीको खा ।" जब वह पति भयभीत होकर भागने लगा तब उसने छुरीसे आघात करके उसके वस्त्रोंको फाड़कर, उसे चीर डाला और मार डाला। एक अन्य स्त्री वीरवतीने अपने जार प्रेमी अंगारक नामक चोर, जो नवयुवकके पूरे शृंगारसे युक्त शूलीपर आरूढ़ था, को गाढ़ालिंगन दिया और मुख-चुम्बन भी। अंगारकने उसका अधर अपने दांतोंसे काट लिया और फिर मर गया। वीरवती अपने मुखको ढांककर घर चली गयो । घर आकर उसने कोलाहल मचाया और कहा कि उसके पतिने ही उसके बिम्बाधरको काट लिया है। इस प्रकार उसने अपने सुदत्त नामक पतिको स्वयं मरवानेका प्रयत्न किया । ऐसी अवस्थामें उसकी रक्षा एक किसी पथिकने की जिसने कि वीरवतीके रात्रिके चरित्रको देख लिया था। उसने राजा तथा पुरजनोंका सम्बोधन किया और उस पुश्चली (व्यभिचारिणी ) के साहसको कह सुनाया। उसने समस्त वृत्तान्तको सप्रमाण कर दिखलाया और अपने मित्र सुदत्तको सद्गुणी प्रगट किया। सबने रुधिरकी धारा तथा वृक्षके नोचे खड्गके प्रहारसे कटो अंगुली एवं यममुखके समान उस चोरके मुहमें उस व्यभिचारिणोके होंठके टुकड़ेको देखा ॥९॥
१०. रक्ताका दृष्टान्त तथा यशोधरको विचार-शृंखला नदीके संगमपर दुष्ट, वैरिणो, उपकारहीन ( कृतघ्न ), स्वैरिणी (स्वेच्छचारिणी ) रक्ताने पंगुल मालीके निमित्त अपने पति अयोध्याके राजा मूर्ख देवरतिको नदीमें फेंक दिया। हाय ! स्त्रीकी मति जितना साहस कर लेती है उसका कविराज भी वर्णन नहीं कर पाता। वह मेरी
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