SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० योगसार-प्राभृत [ अधिकार २ काल और जीव ये पाँच तो अमूर्तिक द्रव्यकी कोटिमें आते हैं और एक मात्र पुद्गल मूर्तिक द्रव्य ठहरता है। कहा भी है। मूर्तिमन्तोऽत्र पुद्गलाः' (३)-इन छह द्रव्योंमें केवल पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है; क्योंकि वह मूर्तिके लक्षण रूप (वर्ण), गन्ध, रस और स्पर्शको व्यवस्थाको अपने में लिये हुए होता है। और ये चार मूल-गुण ही, जिनके उत्तर-गुण बीस होते हैं, इन्द्रिय-ग्राह्य हैं-चक्षु, नासिका, रसना और त्वचा (स्पर्शन) इन्द्रियोंके विषय हैं। इन्द्रियग्राह्य-गुणोंको ही यहाँ 'मूर्त' और ज्ञान-दर्शनादि अतीन्द्रिय-गुणोंको 'अमूर्त' कहा गया है। इस पद्यमें अतीन्द्रियको 'अमूर्त' बतलाया है और गत १०वें पद्यमें परमाणुको भी अतीन्द्रिय लिखा है; तब पुद्गल-परमाणु भी अमूर्त ठहरता है। परन्तु पुद्गलद्रव्य मूर्तिक होता है' इससे परमागु भी मूर्तिक होना चाहिए अतः परमाणुको अतीन्द्रिय और अमूर्त कहना विरोधको लिये हुए जान पड़ता है, यदि ऐसा कहा जाय तो वह एक प्रकारसे ठीक है, क्योंकि वस्तुतः पुद्गलद्रव्य मूर्तिक ही होता है-भले ही अपनी किसी सूक्ष्म या सूक्ष्मतर अवस्थामें वह इन्द्रियग्राह्य न हो। परन्तु इन्द्रियग्राह्य न होनेसे ही यदि पुद्गल परमाए अतीन्द्रिय माना जाय तो हजारों परमाणुओंके स्कन्धरूप जो कार्माण-वर्गणाएँ हैं वे भी इन्द्रिम-ग्राह्य न होनेसे अतीन्द्रिय तथा अमूर्तिक ठहरेंगी और इससे पुद्गलका एक अविभागी परमार ही नहीं बल्कि वर्गणाओंके रूपमें सूक्ष्म पुद्गल-स्कन्ध भी अमूर्तिक ठहरेंगे। मूर्तिक ठहरनेपर उनमें स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णका अभाव मानना होगा और इन पुद्गल-गुणोंका अभाव होनेपर पुद्गल-द्रव्यके ही अभावका प्रसंग उपस्थित होगा। अतः परमाणुको अर्तीन्द्रिय और अतीन्द्रियको अमूर्तिक कहना व्यवहार-नयकी दृष्टिसे कथन है, निश्चयनवकी दृष्टिसे नहीं। कितने ही सूक्ष्म पदार्थ ऐसे हैं जो स्वभावतः तो इन्द्रिय-गोचर नहीं हैं परन्तु यन्त्रोंकी सहायतासे इन्द्रिय-गोचर हो जाते हैं, आजकल ऐसे शक्तिशाली यन्त्र तैयार हो गये हैं जो एक सूक्ष्म-वस्तुको हजारों गुणी बड़ी करके दिखला सकते हैं। ऐसी स्थितिमें परमाणु भी यन्त्रको सहायतासे बड़ा दिखाई दे सकता है। परन्तु कैसी भी शक्तिशालिनी आँख हो उससे स्वतन्त्रतापूर्वक वह देखा नहीं जा सकता। इसीसे वह अतीन्द्रिय होते हुए भी पुद्गलद्रव्यकी दृष्टिसे मूर्तिक है। कौन पुद्गल किसके साथ कर्म-भावको प्राप्त होते है 'कर्म वेदयमानस्य भावाः सन्ति शुभाशुभाः। कर्मभावं प्रपद्यन्ते संसक्तास्तेषु पुद्गलाः ॥२२॥ 'कर्म-फलको भोगते हुए जीवके शुभ या अशुभ भाव होते हैं। उन भावोंके होनेपर सम्बन्धित-आस्त्र वित हुए पुद्गल कर्म-भावको प्राप्त होते हैं-ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परिणमते हैं।' व्याख्या-गत २०वें पद्यके अनुसार जो पुद्गल द्रव्य लोकमें ठसाठस भरे हुए हैं वे किसी जीवके साथ कर्मभावको कत्र प्राप्त होते हैं इसी विषयके सिद्धान्तका इस पद्यमें निरूपण किया गया है-लिखा है कि जब कोई जीव उदयमें आये कर्मको भोगता है तब उसके भाव (मन-वचन-कायरूप योगोंके परिणमन) शुभ या अशुभ रूप होते हैं। और उन भावों १. स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः । - त० सूत्र अ० ५। २. अत्ता कुणदि सहावं तत्य गदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा॥६५॥ - पञ्चास्ति। ३. मा संशत्तास्तेषु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy