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________________ पद्य १९-२१] अजीवाधिकार ४९ श्री अमृतचन्द्राचार्यने तत्त्वार्थसार में तत्त्वार्थसूत्र सम्मत पुद्गलोंके अणु और स्कन्ध ऐसे दो भेद करके फिर स्कन्धोंके स्कन्ध, देश और प्रदेश ऐसे तीन भेद किये हैं और तदनन्तर उनका जो स्वरूप दिया है वह उक्त पद्य तथा पंचास्तिकायसे मिलता-जुलता है ।' किस प्रकारके पुद्गलोंसे लोक कैसे भरा हुआ है सूक्ष्मैः सूक्ष्मतरैर्लोकः स्थूलैः स्थूलतरैश्चितः । अनन्तैः पुद्गलैश्चित्रैः कुम्भो धूमैरिवाभितः ||२०| 'लोक सर्वं ओरसे सूक्ष्म-सूक्ष्मतर, स्थूल-स्थूलतर अनेक प्रकारके अनन्त पुद्गलोंसे धूमसे घटके समान (ठसाठस ) भरा हुआ है । व्याख्या - पिछले पद्य में पुद्रालद्रव्यके स्कन्धादिके भेदसे चार भेदोंका उल्लेख किया गया है, इस पद्य में दूसरी दृष्टिसे चार भेदोंका निर्देश है और वे हैं १ सूक्ष्म, २ सूक्ष्मतर, ३ स्थूल, ४ स्थूलतर । ये भेद कर्मरूप होने योग्य पुद्गलोंसे सम्बन्ध रखते हैं । इनके विषयमें लिखा है कि इन चारों प्रकारोंके पुद्गलोंसे लोकाकाश धूमसे घड़ेके समान ठसाठस भरा हुआ है - जहाँ लोकमें सर्वत्र आत्म- द्रव्यका अवस्थान है वहीं कर्मरूप होने योग्य इन विविध पुद्गलोंका भी अवस्थान है और इसलिए बन्धकी अवस्थामें इन्हें जीव कहीं बाहरसे लाता नहीं । काय, वचन तथा मनकी क्रियारूप योगका संचालन होते ही ये पुद्गल स्वयं कर्मरूप होकर आत्म-प्रवेश करते हैं । यहाँ सूक्ष्मतम (अतीव सूक्ष्म) और स्थूलतम (अतीव स्थूल) पुद्गलोंका उल्लेख नहीं है; क्योंकि ये दोनों प्रकार के पुद्गल कर्म-वर्गणाकी योग्यता से रहित होते हैं । इसीसे प्रवचनसारमें 'अप्पाओग्गेहि जोग्गेहि' इन दो विशेषणोंका साथमें प्रयोग किया गया है । द्रव्यके मूर्तीमूर्त दो भेद और उनके लक्षण मृतमूर्त द्विधा द्रव्यं मूतमूर्तेर्गुणैर्युतम् । अग्राह्या गुणा मूर्ता अमूर्ता सन्त्यतीन्द्रियाः ॥२१॥ 'द्रव्य मूर्तिक और अमूर्तिक दो प्रकारका है । मूर्त-गुणोंसे जो युक्त वह मूर्तिक और जो अमूर्त-गुणोंसे युक्त वह अमूर्तिक है। जो गुण इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य हैं वे मूर्त और जो गुण इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं वे अमूर्त कहलाते हैं ।' व्याख्या - इससे पहले (१-४) जीव अजीवकी दृष्टिसे द्रव्योंके छह भेद बतलाये गये हैंएक जीव और पाँच धर्मादिक अजीव । यहाँ मूर्त-अमूर्त - गुणोंसे युक्त होने की अपेक्षा द्रव्यके दो भेद किये गये हैं- एक मूर्तिक, दूसरा अमूर्तिक, जिससे धर्म, अधर्म, आकाश, Jain Education International १. अणु-स्कन्ध- विभेदेन द्विविधाः खलु पुद्गलाः । स्कन्धो देशः प्रदेशश्च स्कन्धस्तु त्रिविधो मतः ।।३-५६।। अनन्तपरमाणूनां संघातः स्कन्ध उच्यते । देशस्तस्यार्धमर्घाधं प्रदेशः परिकीर्तितः ॥३-५७॥ २. ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहि सव्त्रदो लोगो । सुमेहिं बादरेह् िय अप्पाओग्गेहि जोग्गे हि ॥ १६८ ॥ - प्रवचनसार । ओगाढगाढ णिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । सुहमेहिं बादरेहि य ताणतेहि विविधेहि ॥ ६४ ॥ - पञ्चास्ति । ३. मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदम्वप्पगा अणेगविधा । दव्वाणममुत्ताणं गुप्पा व्यमुत्ता मुणेदव्वा ॥ १३१ ॥ - प्रवचनसार । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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