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________________ पद्य ९-१०] अजीवाधिकार परमाणुकी स्वरूप-विषयक अच्छी जानकारीके लिए कुछ दूसरी बातों अथवा परमाणुके अन्य विशेषणोंको भी जान लेना चाहिए जिन्हें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने पंचास्तिकार व्यक्त किया है और वे हैं--सर्वस्कन्धान्त्य, शाश्वत, अशब्द, अविभागी, एक, मूर्तिभव, आदेशमात्रमूर्त, धातुचतुष्क-कारण, प रणाम-गुण, एक-रस-वर्ण-गन्ध, द्विस्पर्श, शब्द-कारण, स्कन्धान्तरित । जैसा कि उसकी निम्न गाथाओंसे प्रकट है : सव्येति खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू। सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिमवो ॥७७॥ आदेशमत्तमुत्तो धाजुवदुक्कस्स कारणं जो दु । सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो ॥७॥ एयरसवण्णगंधं दो फासं सद्दकारणमसदं । खंधंतरिवं दव्वं परमाणू तं वियाणीहि ॥८ ॥ पुद्गलकी किसी भी स्कन्धपायका भेद (खण्ड ) होते-होते जो अन्तिम भेद अवशिष्ट रहता है उसे 'स्कन्धान्त्य' कहते हैं। उसका फिर कोई भेद न हो सकनेसे उसे 'अविभागी' कहते हैं। जो निर्विभागी होता है वह एकप्रदेशी है और एकप्रदेशी होनेसे 'एक' कहा जाता है-द्वयणुकादि स्कन्धरूप एक नहीं। मूर्त-द्रव्यरूपसे उसका कभी नाश नहीं होता इसलिए उसको . 'शाश्वत' (नित्य ) कहते हैं। अनादि-निधन-रूपरसगन्धस्पर्शवन्ती जो मूर्ति है उसके परिणामसे उत्पन्न होने के कारण वह 'मूर्तिमय' कहलाता है। रूपादि रूपमूर्ति के परिणामसे उत्पन्न होनेपर भी शब्दके परमाणुगुणपनेका अभाव होने तथा पुद्गलकी स्कन्धपर्यायके रूपमें व्यपदिष्ट होनेके कारण परमाणु 'अशब्द' रूपको लिये हुए है। परमाणु मूर्तिक है ऐसा कहा जाता है, परन्तु दृष्टिसे दिखलाई नहीं देता इसलिए उसे 'आदेशमात्र-मूर्त' कहते हैं अथवा परमाणुमें मूर्तत्वके कारणभूत जो स्पर्शादि चार गुण हैं वे आदेशमात्रसे-माथन त्रकी दृष्टिसे-भेदको प्राप्त हैं-पृथक रूपसे कथन किये जाते हैं सत्तारूप प्रदेशभेदकी दृष्टिसे नहीं; क्योंकि वास्तवमें परमाणुका जो आदि-मध्य और अन्तरूप एक प्रदेश है वही स्पर्शादि-गुणोंका भी प्रदेश है-द्रव्य और गुणोंमें प्रदेशभेद नहीं होता। पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायुरूप जो चार धातु है-भूनचतुष्टय हैं-उनके निर्माणका कारण होनेसे परमाणुको 'धातुचतुष्क-कारण' कहते हैं। गन्धादि गुणोंमें व्यक्ताव्यक्त रूप विचित्र परिणमनके कारण परमाणुको 'परिणामगुण' कहा जाता है। एकप्रदेशी होनेसे परमाणु शब्दरूप परिणत नहीं होता; क्योंकि शब्द अनेकानेक परमाणुओंका पिण्ड होता है और वह पुद्गलका कोई गुण भी नहीं है, इसीसे परमाणु 'स्वयमशब्द' कहलाता है। रस तथा वर्णकी पाँच-पाँच पर्यायोंमें-से किसी एक-एक पर्यायको और गन्धकी दो पर्यायोंमें-से किसी एक पर्यायको एक समयमें अवश्य लिये हुए होनेके कारण परमाणुकी 'एक-रस-वर्ण-गन्ध' संज्ञा है और शीतस्निग्ध, शीतलक्ष, उष्णस्निग्ध, उष्णरूक्ष रूप जो चार स्पर्शगुणके जोड़े हैं उनमें से एक समय किसी एक ही जोड़े रूप परिणत होनेके कारण परमाणुको 'द्विस्पर्श' भी कहते हैं। परमाणु स्वयं शब्दरूप न होनेपर भी स्कन्धरूप परिणत होनेकी शक्तिको लिये हुए होनेके कारण 'शदकारण' कहा जाता है। और अनेक परमाणुओंकी एकत्व-परिणतिरूप जो स्कन्ध है उससे अन्तरित-स्वभावसे भेदरूप जुदा द्रव्य होनेके कारण परमाणुको 'स्कन्धान्तरित' भी कहते हैं। जो धातुचतुष्कका कारण होता है उसे 'कारणपरमाणु' और जो स्कन्धोंका अन्त्य होता है उसे 'कार्यपरमाणु' कहते हैं। एकरस-बर्णनान्ध-द्विस्पर्शगुणपरमाणु 'स्वभावगुण' कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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