________________
योगसार-प्राभृत तहं दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो।
केवल मंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥१३॥-नियमसार कौन योगी कब किसका कैसे चिन्तन करता हुआ मुक्तिको प्राप्त होता है ?
गलित-निखिल-राग-द्वष-मोहादि-दोषः सततमिति विभक्तं चिन्तयन्नात्मतत्त्वम् । गतमलमविकारं ज्ञान-दृष्टि-स्वभावं
जनन-मरण-मुक्तं मुक्तिमाप्नोति योगी ॥५९॥ इति श्रीमदमितगति-निःसंगयोगिराज-विरचित योगसारग्राभृते जीवाधिकारः ॥१॥
'जो गतमल है-ज्ञानावरणादि-कर्ममलसे रहित है-अविकार है-रागादि-विकारभावोंसे शून्य है-जन्म-मरणसे मुक्त है और ज्ञान-दर्शन-स्वभाव-मय है, ऐसे विभक्त-पर पदार्थोंसे भिन्न-आत्मतत्त्वको निरन्तर ध्याता हुआ जो योगी पूर्णतः राग-द्वेष-मोह-आदि दोषोंसे रहित हो जाता है वह मुक्तिको प्राप्त करता है।'
व्याख्या-यह प्रथम अधिकारका उपसंहारात्मक पद्य है, जिसमें सारे अधिकारका सार खींचकर रखा गया है। इसमें बतलाया है-जिससे व्यकम-भावकम-नोकमरूप मलविकार दूर हो गया है और इसलिए जो निर्विकार-निर्दोष है, सम्यगदर्शन-ज्ञान-स्वभावरूप है, जन्म-मरणसे रहित-मुक्त है उस शरीरादि परपदार्थोंसे विभिन्न हुए शुद्ध आत्म-तत्त्वका जो योगी निरन्तर ध्यान करता हुआ अपने सब राग-द्वेष-मोहादि-दोपोंको गला देता हैसुवर्ण में लगे किट्टकालिमाकी तरह भस्म कर अपने आत्मासे अलग कर देता है-वह स्वात्मोपलब्धि-रूप मुक्तिको प्राप्त होता है।
इसमें मुक्ति-प्राप्तिका अति संक्षेपसे बड़ा ही सुन्दर कार्यक्रम सूचित किया गया है।
इस प्रकार श्री अमितगति-निःसंगयोगिराज-विरचित योगसारप्राभृतमें जीवाधिकार
नामका प्रथम अधिकार समास हुआ ॥१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org ..