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________________ १४ योगसार-प्राभृत [अधिकार १ प्रविष्ट होते हैं; फिर भी पदार्थ दर्पणमें प्रतिबिम्बित होकर प्रविष्ट-से जान पड़ते हैं और दर्पण भी उन पदार्थोंको अपनेमें प्रतिबिम्बित करता हुआ तद्गत तथा उन पदार्थोंके आकाररूप परिणत मालूम होता है, और यह सब दर्पण तथा पदार्थोंकी इच्छाके बिना ही वस्तु-स्वभावसे होता है । उसी प्रकार वस्तु-स्वभावसे ही शुद्धात्मा केवलीके केवलज्ञानरूप दर्पणमें अलोकसहित सब पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं और इस दृष्टिसे उनका वह निर्मल ज्ञान आत्मप्रदेशोंकी अपेक्षा सर्वगत न होता हुआ भी 'सर्वगत' कहलाता है और तदनुरूप वे केवली भी स्वात्मस्थित होते हुए 'सर्वगत' कहे जाते हैं। इसमें विरोधकी कोई बात नहीं है। इस प्रकारका कथन विरोधालंकारका एक प्रकार है, जो वास्तव में विरोधको लिये हुए न होकर विरोध-सा जान पड़ता है, और इसीसे 'विरोधाभास' कहा जाता है। अतः केवलज्ञानीके प्रदेशापेक्षा सर्वव्यापक न होते हुए भी, स्वात्मस्थित होकर सर्व पदार्थोंको जानने-प्रतिभासित करनेमें कोई बाधा नहीं आती। अब यहाँपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि दर्पण तो वर्तमानमें अपने सम्मुख तथा कुछ तिर्यक् स्थित पदार्थों को ही प्रतिबिम्बित करता है-पीछेके अथवा अधिक अगल-बगलके पदार्थोंको वह प्रतिबिम्बित नहीं करता-और सम्मुखादिरूपसे स्थित पदार्थों में भी जो सूक्ष्म हैं, दूरवर्ती हैं, किसी प्रकारके व्यवधान अथवा आवरणसे युक्त हैं, अमूर्तीक हैं, भूतकालमें सम्मुख उपस्थित थे, भविष्यकालमें सम्मुख उपस्थित होंगे कि वतमानमें सम्मुख उपस्थित नहीं हैं उनमें से किसीको भी वर्तमान समयमें प्रतिबिम्बित नहीं करता है, जब ज्ञान दर्पणके समान है तब केवली भगवान्के ज्ञान-दर्पणमें अलोकसहित तीनों लोकोंके सब पदार्थ युगपत् कैसे प्रतिभासित हो सकते हैं ? और यदि युगपत् प्रतिभासित नहीं हो सकते तो सर्वज्ञता कैसे बन सकती है ? और कैसे 'सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते' यह विशेषण श्री वर्धमान स्वामीके साथ संगत बैठ सकता है ? इसके उत्तरमें मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि उपमा और उदाहरण (दृष्टान्त ) प्रायः एकदेश होते हैं-सर्वदेश नहीं, और इसलिए सर्वापेक्षासे उनके साथ तुलना नहीं की जा सकती। उनसे किसी विषयको समझनेमें मदद मिलती है, यही उनके प्रयोगका लक्ष्य होता है । जैसे किसीके मुखको चन्द्रमाकी उपमा दी जाती है, तो उसका इतना ही अभिप्राय होता है कि वह अतीव गौरवर्ण है-यह अभिप्राय नहीं होता कि उसका और चन्द्रमाका वर्ण बिलकुल एक है अथवा वह सर्वथा चन्द्रधातुका ही बना हुआ है और चन्द्रमाकी तरह गोलाकार भी है। इसी तरह दपण और ज्ञानके उपमान-उपमेय-भावका समझना चाहिए। यहाँ ज्ञान ( उपमेय) को दर्पण ( उपमान ) की जो उपमा दी गयी है उसका लक्ष्य प्रायः इतना ही है कि जिस प्रकार पदार्थ अपने-अपने स्थानपर स्थित रहते हुए भी निर्मल-दर्पणमें ज्योंके त्यों झलकते और तद्गत मालूम होते हैं और अपने इस प्रतिबिम्बित होने में उनकी कोई इच्छा नहीं होती और न दर्पण ही उन्हें अपनेमें प्रतिबिम्बित करने-करानेकी कोई इच्छा रखता है-सब कुछ वस्तु स्वभावसे होता है; उसी तरह निर्मलज्ञानमें भी ज्योंके त्यों प्रतिभासित होते तथा तदगत मालम होते हैं और इस कार्य में किसीकी भी कोई इच्छा चरितार्थ नहीं होती-वस्तुस्वभाव ही सर्वत्र अपना कार्य करता हुआ जान पड़ता है। इससे अधिक उसका यह आशय कदापि नहीं लिया जा सकता कि ज्ञान भी साधारण दर्पणकी तरह जड़ है, दर्पण धातुका बना हुआ है, दर्पणके समान एक पार्श्व (Side ) ही उसका प्रकाशित है और वह उस पावके सामने निरावरण अथवा व्यवधानरहित अवस्थामें स्थित तात्कालिक मूर्तिक पदार्थोंको ही प्रतिबिम्बित करता है। ऐसा आशय लेना उपमान-उपमेय-भाव तथा वस्तु-स्वभावको न समझने-जैसा होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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