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________________ पद्य १८-१९ ] जीवाधिकार १३ 'लोक' उसे कहते हैं जो अनन्त आकाशके बहुमध्य भाग में स्थित और अन्तमें तीन महावातवलयोंसे वेष्टित जीवादि पडू द्रव्यों का समूह है अथवा जहाँ जीव- पुद्गलादि छह प्रकारके द्रव्य' अवलोकन किये जायें – देखे- पाये जायें - वह सब लोक है, और उसके ऊर्ध्व, मध्य, अधः लोकके भेदसे तीन भेद हैं, जिनकी 'त्रिलोक' संज्ञा है । इस त्रिभागरूप लोकसे बाहरका जो क्षेत्र है और जिसमें सब ओर अनन्त आकाशके सिवा दूसरा कोई द्रव्य नहीं है उसे 'अलोक' कहते हैं। लोक- अलोक में सम्पूर्ण ज्ञेय तत्त्वोंका समावेश हो जाने से उन्हीं में ज्ञेय तत्त्वकी परिसमाप्ति की गयी है । अर्थात् यह प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञेयतत्त्व लोक·अलोक है'—लोक - अलोकसे भिन्न अथवा बाहर दूसरा कोई 'ज्ञेय' पदार्थ है ही नहीं । साथ ही ज्ञ ेय ज्ञानका विषय होनेसे और ज्ञानकी सीमाके बाहर ज्ञेयका कोई अस्तित्व न बन सकनेसे यह भी प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञान ज्ञेय-प्रमाण है' । जब ज्ञेय लोकअलोक प्रमाण है तब ज्ञान भी लोक- अलोक प्रमाण टहरा, और इसलिए ज्ञानको लोक- अलोककी तरह सर्वगत (व्यापक) होना चाहिए । इसीसे पुरातनाचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी प्रवचनसारकी 'आदा णाणपमाणं' गाथा में 'तम्हा णाणं तु सव्वगयं' इस वाक्यके द्वारा ज्ञानको 'सर्वगत' बतलाया है । जब आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय-प्रमाण होनेसे लोकालोक -प्रमाण तथा सर्वगत है तब आत्मा भी सर्वगत हुआ । और इससे यह निष्कर्ष निकला कि आत्मा अपने ज्ञान-गुण सहित सर्वगत ( सर्वव्यापक) होकर लोकालोकको जानता है, और इसलिए लोकालोकके ज्ञाता जो-जो सर्वज्ञ अथवा केवलज्ञानी (केवली) हैं वे सर्वगत होकर ही लोकाsलोकको जानते हैं । परन्तु आत्मा सदा स्वात्मप्रदेशों में स्थित रहता है - संसारावस्था में आत्माका कोई प्रदेश मूलोत्तर इस आत्मदेह से बाहर नहीं जाता और मुक्तावस्थामें शरीरका सम्बन्ध सदा के लिए छूट जानेपर आत्माके प्रदेश प्रायः चरम देहके आकारको लिये हुए लोकके अग्रभागमें जाकर स्थित हो जाते हैं, वहाँसे फिर कोई भी प्रदेश किसी समय स्वात्मा बाहर निकलकर अन्य पदार्थों में नहीं जाता । इसीसे ऐसे शुद्धात्माओं अथवा मुक्तात्माओंको 'स्वात्मस्थित' कहा गया है और प्रदेशोंकी अपेक्षा सर्व व्यापक नहीं माना गया; साथ ही 'सर्वगत' भी कहा गया है; जैसा कि 'स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्त संग: ‍ जैसे वाक्योंसे प्रकट है । तब उनके इस सर्वगतत्वका क्या रहस्य है और उनका ज्ञान कैसे एक जगह स्थित होकर सब जगत्के पदार्थोंको युगपत् जानता है ? यह एक मर्मकी बात है, जिसे स्वामी समन्तभद्रने समीचीन धर्मशास्त्र के मंगलपद्य में श्री वर्द्धमान स्वामीके लिए प्रयुक्त निम्न विशेषण वाक्यके द्वारा थोड़े में ही व्यक्त कर दिया है— सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते । इस वाक्यमें ज्ञानको दर्पण बतलाकर अथवा दर्पणकी उपमा देकर यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार दर्पण अपने स्थानसे उठकर पदार्थोंके पास नहीं जाता, न उनमें प्रविष्ट होता है और न पदार्थ ही अपने स्थानसे चलकर दर्पणके पास आते तथा उसमें १. जैनविज्ञानके अनुसार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये छह द्रव्य हैं । इनके अतिरिक्त दूसरा कोई द्रव्य नहीं है । दूसरे जिन द्रव्योंकी लोकमें कल्पना की जाती है उन सबका समावेश इन्हीं में हो जाता है । ये नित्य और अवस्थित हैं - अपनी छहको संख्याका कभी परित्याग नहीं करते। इनमें पुद्गलको छोड़कर शेष सब द्रव्य अरूपी हैं और इन सबकी चर्चासे प्रायः सभी जैन सिद्धान्त ग्रन्थ भरे पड़े हैं । २. देखो, श्रीधनंजय - कृत 'विषापहार-स्तोत्र' । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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