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मूलका मंगलाचरण और उद्देश्य
विविक्तमव्ययं सिद्ध स्व-स्वभावोपलब्धये ।
स्व-स्वभाव-मयं बुद्धं ध्रुवं स्तौमि विकल्मषम् ॥ १ ॥
'मैं अपने स्वभावकी उपलब्धिके लिए - जानकारी एवं संप्राप्तिके अर्थ-उस सिद्धको - सिद्धिको प्राप्त सिद्धसमूहको - स्तुतिगोचर करता हूँ — अपनी उपासनाका विषय ( उपास्य ) बनाता हूँ - जो विविक्त है - शुद्ध एवं खालिस है, — कषायादिमलसे रहित है, बोधको प्राप्त है, अविनाशी है, नित्य है और स्व-स्वभाव-मय है-सदा अपने स्वरूपमें स्थित है ।'
व्याख्या - यह पद्य सिद्ध समूहकी स्तुतिरूप है । एकवचनात्मक 'सिद्ध' पद यहाँ सिद्धसमूहका वाचक है; क्योंकि सिद्ध कोई एक नहीं है, अनेकानेक हैं; जैसा कि पूर्वाचार्योंके 'दत्तु सव्वसिद्धे', सिद्धानुद्धतकर्मप्रकृतिसमुदयान् " जैसे बहुवचनान्त पदोंके प्रयोगसे जाना जाता है। उस सिद्ध-समूहमें प्रत्येक सिद्ध उन विशेषणोंसे विशिष्ट है जिनका 'विविक्तं' आदि छह विशेषण-पदोंके द्वारा यहाँ स्मरण किया गया है। इन विशेषणों में 'विविक्त' विशेषण प्रमुख तथा गूढ - गम्भीर है, सर्वप्रकार के मिश्रण मिलाव और सम्बन्धसे रहित शुद्ध एवं खालिस आत्माका द्योतक है ।' विकल्मष' विशेषण राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान- माया लोभादिरूप विकारोंमलोंके अभावका सूचक है और इस तरह सिद्धात्माकी उस शुद्धताको स्पष्ट करता है । 'बुद्ध' विशेषण उस मलरहित शुद्ध-आत्माको ज्ञानरूप प्रकट करता है जो कि मलके अभावका फल है – ज्ञानसे भिन्न शुद्ध-आत्माका कोई दूसरा रूप नहीं है, इसीसे आत्माको ज्ञान तथा ज्ञानप्रमाण कहा गया है ।' 'अव्यय' विशेषण अच्युतका वाचक है और इस बातको बतलाता है। कि वह सिद्धात्मा अपने इस शुद्ध-बुद्ध स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होता - सिद्ध पर्यायको छोड़कर भव या अवतार धारणादिके रूपमें कभी संसारी नहीं बनता और न उसमें कभी कोई विक्रिया ही उत्पन्न होती है । 'ध्रुव' विशेषण इस बातका व्यंजक है कि सिद्धका आत्मा सदा स्थिर रहता है-कभी उसका अभाव नहीं होता । और 'स्वभावमय' विशेषण सिद्धात्माके उक्त सब रूपको उसका स्वभाव व्यक्त करता है जिसका कर्म-मलके सम्बन्धसे तिरोभाव हो रहा था और जिसको सिद्ध करके ही यह आत्मा सिद्धिको प्राप्त सिद्धात्मा बनता है । इसीसे सिद्धिका लक्षण 'स्वात्मोपलब्धि" कहा गया है। ये सब विशेषण जिसमें घटित नहीं होते वह सिद्ध या सिद्ध-समूह यहाँ विवक्षित नहीं है ।
'स्तौमि' पदके द्वारा स्तुति-वन्दनाके रूपमें जिस उपासनाका यहाँ उल्लेख है उसका उद्देश्य भी 'स्वस्वभावोपलब्धये' पदके द्वारा साथ में दे दिया गया है, जो यह व्यक्त करता है कि स्वस्वभाव में स्थित सिद्ध समूहकी मेरी यह उपासना स्वस्वभावकी - आत्माके वास्तविक स्वरूपकी — प्राप्ति के लिए है। और यह ठीक ही है, जो आत्मसाधन कर अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर चुका है उसीकी उपासना-आराधनासे तद्विषयक सिद्धिकी प्राप्ति होती है। इसी
१. समयसार १ । २ सिद्धभक्ति १ । ३ प्रवचनसार ३ । ४. जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके इस वाक्यसे प्रकट है— काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या । उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसंभ्रान्तिकरणपटुः ॥ पमी० धर्म० १३३ । ५. सिद्धिः स्वात्मोपलब्धि: - सिद्धभक्ति १ ।
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