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________________ १०० ज्ञानादिक गुणोंका किसी के द्वारा हरणसृजन नहीं शरीरादिक व्यवहार से मेरे हैं, निश्चय से नहीं दोनों नयोंसे स्व-परको जाननेका फल द्रव्य-पर्यायकी अपेक्षा कर्म-फल-भोगकी व्यवस्था १०२ आत्मा औदयिक भावोंके द्वारा कर्मका कर्ता तथा फलभोक्ता १०३ इन्द्रिय विषय आत्माका कुछ नहीं करते १०३ द्रव्य के गुण-पर्याय संकल्प - बिना इष्टानिष्ट नहीं होते निन्दा -स्तुति वचनोंसे रोप तोपको प्राप्त होना व्यर्थ २०४ १०४ मोहके दोष से बाह्यवस्तु सुख - दुःख की दाता वचन द्वारा वस्तुतः कोई निन्दित या स्तुत नहीं होता पर-दोष -गुणों के कारण हर्प विषाद नहीं विषय-सूची १०१ १०१ बनता परके चिन्तनसे इष्ट-अनिष्ट नहीं होता एक दूसरे के विकल्पसे वृद्धि-हानि मानने पर आपत्ति मोहका विलय हो जाने पर स्वरूपकी उपलब्धि जो मोहका त्यागी वह अन्य सब द्रव्योंका त्यागी परद्रव्यमें राग-द्वेष- विधाताकी तपसे शुद्धि नहीं होती कर्म करता और फल भोगता हुआ आत्मा कर्म बाँधता है। सारे कर्मफलको पौद्गलिक जाननेवाला शुद्धात्मा बनता है। Jain Education International १०४ १०४ १०५ १०६ वस्तुतः कोई द्रव्य इष्ट-अनिष्ट नहीं पावन रत्नत्रय में जीवका स्वयं प्रवर्तन १०६ स्वयं आत्मा परद्रव्यको श्रद्धानादिगोचर करता है मोह अपने संगसे जीवको मलिन करता १०५ १०५ १०६ १०७ १०७ १०७ १०८ १०८ शुद्धज्ञाता परके त्याग ग्रहण में प्रवृत्त नहीं होता सामायिकादि पट् कर्मों में सभक्ति - प्रवृत्तके संवर सामायिकका स्वरूप ३९. अधिकारी शुद्धात्मतत्त्वको न जाननेवालेका तप कार्यकारी नहीं १०९ स्तवका स्वरूप वन्दनाका स्वरूप प्रतिक्रमणका स्वरूप प्रत्याख्यानका स्वरूप कायोत्सर्गका स्वरूप सम्यग्ज्ञानपरायण आत्मज्ञ- योगी कर्मोंका निरोधक कोई द्रव्यसे भोजक तो भावसे अभोजक, दूसरा इसके विपरीत द्रव्य-भाव से निवृत्तों में कौन किसके द्वारा पूज्य भावसे निवृत्त ही वास्तविक-संवरका अधिकारी ११३ भावसे निवृत्त होनेकी विशेष प्रेरणा शरीरात्मक लिंग मुक्तिका कारण नहीं मुमुक्षु के लिए त्याज्य और ग्राह्य ११४ कौन योगी शीघ्र कर्मोंका संवर करता है ११५ १०८ For Private & Personal Use Only १०९ १०९ ११० ११० १११ १११ १११ ११२ ११२ ६. निर्जराधिकार ध्यान - प्रक्रमका निर्जराका लक्षण और दो भेद पाकजा-अपाकजा निर्जराका स्वरूप अपाकजा निर्जराकी शक्तिका सोदाहरणनिर्देश परमनिर्जरा-कारक अधिकारी कौन योगी कर्म समूहकी निर्जराका कर्ता ११७ संवरके बिना निर्जरा वास्तविक नहीं ११७ किसका कौन ध्यान कर्मोंका क्षय ११८ ११७ करता है कौन योगी सारे कर्म मलको धो डालता है १९८ विशुद्धभावका धारी कर्मक्षयका ११३ ११३ ११४ ११६ ११६ ११६ ११६ ११९ www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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