SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२१ पद्य ७३-७७] चूलिकाधिकार वैषयिक ज्ञान सब पौद्गलिक ज्ञानं वैषयिकं पुंसः सर्व पौद्गलिक मतम् । विषयेभ्यः परावृत्तमात्मीयमपरं पुनः ॥७६।। 'जीवका जितना वैषयिक (इन्द्रियजन्य) ज्ञान है वह सब पौद्गलिक माना गया है और दूसरा जो ज्ञान विषयोंसे परावृत है-इन्द्रियोंकी सहायतासे रहित है-वह सब आत्मीय है ।' व्याख्या-यहाँ इस जीवके इन्द्रिय-विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाले सारे ज्ञानको 'पौद्गलिक' बतलाया है और जो ज्ञान इन्द्रियविषयोंकी सहायतासे रहित अतीन्द्रिय है वह आत्मीय है--आत्माका निजरूप है। अतः इन्द्रियजन्य पराधीन ज्ञान वास्तव में अपना नहीं और इसलिए वह त्याज्य है। मानवोंमें बाह्यभेदके कारण ज्ञानमें भेद नहीं होता गवां यथा विमेदेऽपि क्षीरभेदो न विद्यते । पुंसां तथा विभेदेऽपि ज्ञानभेदो न विद्यते ॥७७।। 'जिस प्रकार गौओंमें ( काली पीली धौली आदिका) भेद होनेपर भी दूधमेंदूधके रंगमें--कोई भेद नहीं होता उसी प्रकार पुरुषोंके-मानवोंके-( रंगरूपादि-सम्बन्धी ) भेदके होनेपर भी ज्ञानका भेद नहीं होता।' व्याख्या-गौऐं धौली, पीली, नीली, काली, गोरी, चितकबरी आदि अनेक रंगभेदको लिये हुए होती हैं । सींगके भेदोंसे भी उनमें भेद होता है-किसीके सींग छोटे, किसीके बड़े, किसीके सीधे, किसीके मुड़े और किसीके गोलगेंडली मारे हुए होते हैं। और भी शरीर भेद होते हैं, इस विभेदके कारण उनके दूध में जैसे भेद नहीं होता-अर्थात् धौलीका धौला, पीलीका पीला, नीलीकानीला और कालीकाकाला दूध नहीं होता-सबका दूध प्रायः एक ही सफेद रंगका होता है; वैसे ही मनुष्यों में भी परस्पर अनेक भेद पाये जाते हैं-कोई गोरा है कोई साँवला, कोई काला है कोई गन्दुमी रंगका, किसीका चेहरा गोल है किसीका लम्बोतरा, किसीकी गरदन छोटी है किसीको लम्बी, किसीकी सीधी है और किसीकी टेढ़ी है, कोई बुड्ढा कोई लँगड़ा है, कोई काना है कोई अन्धा है, कोई गूंगा है कोई बहरा है, किसीके बाल काले हैं तो किसीके सफेद या भूरे इत्यादि शरीरभेद स्पष्ट देखनेमें आता है, इसी प्रकार कोई ब्राह्मण, कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य और कोई शूद्रादि जाति-भेदको लिये हुए हैं। इस सारे बाह्यभेदके कारण मनुष्योंके ज्ञानमें कोई भेद नहीं होता-जो ज्ञान एक अच्छे गोरे रंग सुन्दर आकारके मनुष्यको प्राप्त होता है वह काले कुरूप तथा विकलांगीको भी प्राप्त होता है तथा हो सकता है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी गरदन टेढ़ी थी इसीसे वे 'वक्रग्रीव' कहलाते थे परन्तु कितने महामति थे यह उनके ग्रन्थोंसे जाना जाता है। अष्टावक्र ऋषिके शरीरमें आठ वक्रताएँ थीं वे भी बहुत बड़े ज्ञानी सुने जाते हैं। भगवत् जिनसेनाचार्यने अपने विषयमें स्वयं लिखा है कि वे यद्यपि अतिसुन्दराकार और अतिचतुर नहीं थे, फिर भी सरस्वती उनपर मुग्ध थी और उसने अनन्य शरण होकर उनका आश्रय लिया था। इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि शरीरादिका कोई बाह्यभेद ज्ञानमें भेद उत्पन्न नहीं करता । ज्ञान आत्माका निजगुण है और इसलिए वह सभी समानरूपसे विकसित आत्माओंमें समान रहता है। उसके विकार तथा न्यूनाधिकताका कारण संसारी जीवोंके साथ लगा कर्ममल है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy