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________________ २२० योगसार-प्राभूत [अधिकार ९ दोषोंके विषयमें रागी-वीतरागीकी स्थिति रागिणः सर्वदा दोषाः सन्ति संसारहेतवः । ज्ञानिनो वीतरागस्य न कदाचन ते पुनः ॥७३॥ __'रागी ( अज्ञानी ) के संसारके कारणीभूत सदा सर्वदोष होते है; किन्तु ज्ञानी वीतरागीके वे दोष कदाचित् भी नहीं होते।' व्याख्या-यहाँ साररूपमें यह बतलाया गया है कि जो रागी-अज्ञानी है उसके संसारके हेतुभूत सभी दोषोंका सम्भव है और जो ज्ञानी-वीतरागी है उसके संसारके हेतुभूत वे दोष कभी नहीं बनते । औदयिक और पारिणामिक भावोंका फल जीवस्यौदयिको भावः समस्तो बन्धकारणम् । विमुक्तिकारणं भावो जायते पारिणामिकः ॥७४॥ __ 'जीवका जो औदयिक भाव-कर्मोके उदय निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला परिणाम--है वह सब बन्धका कारण है, मुक्तिका कारण, पारिणामिक भाव होता है।' व्याख्या-यहाँ पूर्वबन्ध-कथनके सिलसिलेमें जीवके सारे औदायिकभावको-औदयिकभावोंके समूहको-बन्धका हेतु बतलाया है। यह कथन रागी जीवसे सम्बन्ध रखता है; क्योंकि ज्ञानी वीतरागीका कोई कर्म पिछले पद्यानुसार बन्धका कारण नहीं होता। अर्हन्तोंके कुछ कर्मोका उदय बना रहनेसे जो औदयिक भाव होता है वह पूर्णतः वीतरागी हो जानेसे बन्धका कारण नहीं रहता । पारिणामिक भावोंको यहाँ मुक्तिका हेतु बतलाया है, जिसमें जीवत्व और भव्यत्व ये दो भाव आते हैं। अभव्यत्व तो भव्यत्वका प्रतिपक्षी है इसलिए उसको यहाँ ग्रहण नहीं किया जाता। विपयानुभव और स्वात्मानुभवमें उपादेय कौन विषयानुभवं बाह्य स्वात्मानुभवमान्तरम्' । विज्ञाय प्रथमं हित्वा स्थेयमन्यत्र सर्वतः ।।७।। 'इन्द्रिय विषयोंका जो अनुभव है वह बाह्य ( सुख ) है और स्वात्माका जो अनुभव है वह अन्तरंग ( सुख ) है, इस बातको जानकर बाह्य-विषयानुभवको छोड़कर स्वात्मानुभवरूप अन्तरंगमें पूर्णतः स्थित होना चाहिए।' व्याख्या-यहाँ यह बतलाया गया है कि इन्द्रिय विषयोंका जो अनुभव न हो वह नो बाह्यकी वस्तु है-बाह्य सुख है जो स्थिर रहनेवाला नहीं और अपनी आत्माका जो अनुभवन है वह अन्तरंगकी वस्तु है-सदा स्थिर रहनेवाला आध्यात्मिक सुख है-अतः इस तत्त्वको जानकर विषयानुभवनके त्यागपूर्वक स्वात्मानुभवमें पूर्णतः स्थिर होना चाहिए। यही परमहित रूप है। १. भाज्या बाह्यमात्मानुभवमांतरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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