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________________ पद्य २४-२९] चूलिकाधिकार २०५ व्याख्या-जिस लक्ष्मी (धन-दौलत ) के रागमें लोग दिन-रात फंसे रहते हैं उसे यहाँ विपदाकी सहेली बतलाया है। अनेक प्रकारकी आपदाएँ-मुसीबते उसके साथ लगी रहती हैं और इसलिए जो तत्त्वके जानकार वास्तविक विद्वान हैं उनके लिए वह लक्ष्मी आनन्दकी कोई वस्तु नहीं होती-मजबूरोको अपनी अशक्ति तथा कमजोरीके कारण अथवा दूसरे कुछ बड़े कष्टोंसे बचनेके लिए उसका सेवन किया जाता है । उसी प्रकार ( आसक्तिपूर्वक ) भोग भी जिसका साथी कल्मष है-कषायादिके बन्धरूप कर्ममल है-वह उक्त विद्वानोंके लिए सुखका कारण नहीं होता-आसक्तिके. कारण मजबूरीसे तत्कालीन वेदनाकी शान्तिके लिए होता है-वे अपनी तात्त्विक एवं अमोह दृष्टिसे उसे हितकारी नहीं समझते । भोग-संसारसे सच्चा वैराग्य कब उत्पन्न होता है भोग-संसार-निर्वेदो जायते पारमार्थिकः । सम्यग्ज्ञान-प्रदीपेन तन्नैगुण्यावलोकने ॥२७॥ 'भोग और संसारसे वैराग्यका होना तभी पारमार्थिक बनता है जब सम्यग्ज्ञानरूप प्रदीपकसे उनमें निर्गुणताका अवलोकन किया जाता है।' व्याख्या-भोगोंसे और संसारसे सच्चा वैराग्य कब होता है, इस बातको बतलाते हुए यहाँ यह स्पष्ट घोषणा की गयी है कि 'जब सम्यग्ज्ञानरूप दीपकसे भोगों तथा संसारकी निर्गुणता-निःसारता स्पष्ट दिखलाई देती है तब उनसे पारमार्थिक वैराग्य उत्पन्न होता हैउक्त निर्गुणताके दर्शन बिना सच्चा वैराग्य नहीं बनता, बनावटी तथा नुमायशी बना रहता है। इसीसे कितने ही भावुकतादिमें आकर ब्रह्मचारी तो बनते हैं परन्तु उनसे ब्रह्मच पूरी तौरसे पालन नहीं हो पाता। जो नारीके कामाङ्गको स्वामी समन्तभद्रके शन्दोंमें मलबीज. मलयोनि, गलन्मल, पूतिगन्धि और बीभत्स इन पाँच विशेषणोंसे युक्त देखता, अनुभव करता और रमणके योग्य नहीं समझता वह वस्तुतः कामसे-अब्रह्मरूप मैथुनसे-घृणाकर-विरक्त होकर सच्चा ब्रह्मचारी बन निर्वाणमें परमा भक्ति और उसके लिए कर्तव्य निर्वाण परमा भक्तिः पश्यतस्तद्गुणं परम् । चित्र-दुःखमहाबीजे नष्टे सति विपर्यये ॥२८॥ ज्ञानवन्तः सदा बाघप्रत्याख्यान-विशारदाः। ततस्तस्य परित्यागं कुर्वते परमार्थतः ॥२६॥ 'सम्यग्ज्ञानके विपक्षी तथा नाना दुःखोंके बीजभूत मिथ्याज्ञानके नष्ट होनेपर निर्वाणमें, उसके उत्कृष्ट गुण समूहको देखते हुए, परमा भक्ति होती है। अतः जो ( आत्मासे भिन्न ) बाह्य पदार्थोंके त्यागमें प्रवीण ज्ञानीजन हैं वे उस मिथ्याज्ञानका पारमार्थिक दृष्टिसे त्याग करते हैंक्योंकि वह भी वस्तुतः आत्मासे भिन्न पदार्थ है। ____ व्याख्या-संसारके विपक्षीभूत निर्वाणमें उत्कृष्ट भक्ति तभी उत्पन्न होती है जब अनेकानेक दुःखोंके बीजभूत मिध्याज्ञानके नष्ट होनेपर निर्वाणके गुणोंका सम्यक अवलोकन १. अर्थस्योपार्जने दुःखमर्जितस्य च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थं दु:खभाजनम् ॥-इष्टोपदेश टीकामें उद्धृत । २. मलबीजं मलयोनि गलन्मलं तिगन्धि बीभत्सतां पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारीसः, -समीचीन धर्मशास्त्र १४३ । ३. ज्या कुर्वन्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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