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________________ २०४ योगसार-प्राभूत [ अधिकार व्याख्या-जिस प्रकार मायाजल ( मृगमरीचिका) को उसके असली रूपको जानने वाला और उसे सत्य जल न समझनेवाला उसकी प्राप्तिके लिए उधर दौड़-धूप नहीं करता, उसी प्रकार भोगोंको तात्त्विकदृष्टिसे देखने वाला उनमें आसक्त नहीं होता और इसलिए संसारसागरमें पड़कर गोते नहीं खाता-दुःख नहीं उठाता। विषय-भोगोंको तात्त्विकष्ठिसे न देखना ही उनमें आसक्तिका कारण बनता है और वह आसक्ति आसक्तको भव-भवमें रुलाती तथा कष्ट पहुँचाती है । भोग-मायासे विमोहित जीवको स्थिति स तिष्ठति भयोद्विग्नो यथा तत्र व शङ्कितः । तथा निर्वृतिमार्गेऽपि भोगमायाविमोहितः ॥२४॥ 'जिस प्रकार मायाजलमें शंकित प्राणी भयसे उद्विग्न हुआ तिष्ठता है उसी प्रकार भोगमायासे विमोहित हुआ-भोगोंके ठीक स्वरूपको न समझ कर-जीव मुक्तिमार्गमें शंकित हुमा प्रवर्तता है। व्याख्या-जिस प्रकार मायाजलके सत्य स्वरूपको न समझनेवाला प्राणी संकितचित्त हुआ उस ओर जलके फैलावकी आशंकासे जानेमें भयाकुल होता है उसी प्रकार जो जीव भोगोंकी मायासे विमोहित हुआ उनके सत्य स्वरूपको नहीं समझता वह निर्वृतिके मार्गमेंभोगोंसे विरक्तिके पन्थमें-निःशंक प्रवृत्ति नहीं करता । उसे उस मार्गपर चलने में भय बना रहता है। धर्मसे उत्पन्न भोग भी दुःख-परम्पराका दाता धर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दुःख-परंपराम् । चन्दनादपि संपन्नः पावकः प्लोषते न किम् ॥२५।। 'धर्मसे भी उत्पन्न हुआ भोग दुःख-परम्पराको देता है । ( ठोक है ) चन्दनसे भी उत्पन्न हुई अग्नि क्या जलाती नहीं हैं ? जलाती ही है।' व्याख्या-धर्मकी साधना करते हुए शुभ परिणामोंके वश जो पुण्योपार्जन होता है उस पुण्यकमके उदयसे मिला हुआ भोग भी दुःख-परम्पराका कारण है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि अत्यन्त शीतल स्वभाव चन्दनसे उत्पन्न हुई अग्नि भी जलानेके कार्यसे नहीं चूकती। अतः पुण्यसे उत्पन्न हुए भोगोंको भी दाहक-स्वभाव अग्निके समान दुःखकर समझना चाहिए । एक कविने रागको आगकी उपमा देते हुए बड़े ही सुन्दर रूपमें लिखा है : यह राग आग दहे निरन्तर, यातें समामृत पीजिए। चिर भजे विषय-कषाय, अब तो त्याग इनको दीजिए। विवेकी विद्वानोंको दृष्टिमें लक्ष्मी और भोग विपत्सखी यथा लक्ष्मी नन्दाय विपश्चिताम् । न कल्मषसखो भोमस्तथा भवति शर्मणे ॥२६॥ 'जिस प्रकार विपदा जिसको सखी-सहेली है वह लक्ष्मी विद्वानोंके लिए आनन्दप्रदायक नहीं होती उसी प्रकार कल्मष-कर्ममल-जिसका साथी है वह भोग विद्वानोंके लिए सुखकारी नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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