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योगसार-प्राभूत
[ अधिकार ८ व्याख्या--बुद्धि आदिकी विशेषताको दर्शानेके लिए यहाँ जिस फलभेदके उदाहरणकी बात कही गयी है उसे संक्षेपतः अगले कुछ पद्योंमें बतलाया गया है ।
बुद्धिपूर्वक सब कार्य संसार-फलके दाता बुद्धिपूर्वाणि कर्माणि समस्तानि तनुभृताम् ।
संसारफलदायीनि विपाकविरसत्वतः ||८४॥ 'देहधारी जीवोंके जो बुद्धिपूर्वक कार्य हैं वे सब संसारफलके देनेवाले हैं, क्योंकि वे विपाकमें विरस होते हैं।'
व्याख्या-यहाँ संसारी जीवोंके जितने भी बुद्धिपूर्वक कार्य हैं उन सबको सांसारिक फल अथवा संसार-परिभ्रमणरूप फलके देनेवाले लिखा है और उसका हेतु यह दिया है कि वे विपाककालमें विरस होते हैं। जो विपाककालमें रसरहित अथवा विकृत रस हो जाते हैं उन इन्द्रियाश्रित बुद्धिपूर्वक कार्योंकी ऐसी ही स्थिति है कि वे संसार-फलको ही देनेवाले होते हैं।
ज्ञानपूर्वक कार्य मुक्तिहेतुक तान्येव ज्ञान-पूर्वाणि जायन्ते मुक्तिहेतवे ।
अनुबन्धः फलत्वेन श्रुतशक्तिनिवेशितः ॥८॥ 'वे ही कार्य जब ज्ञान-पूर्वक होते हैं तो वे मुक्तिके हेतु होते हैं, क्योंकि श्रुतशक्तिको लिये हुए जो अनुराग है वह (क्रमशः ) मुक्ति फलको फलता है।
व्याख्या--जो कार्य इन्द्रियाश्रित बुद्धिपूर्वक किये जाते हैं वे ही कार्य जब आगमाश्रित ज्ञानपूर्वक किये जाते हैं तो वे बन्धके फलको न फलकर क्रमसे मुक्तिके फलको फलते हैं । इससे यह साफ ध्वनित होता है कि इन्द्रियाश्रित बुद्धि अज्ञानरूपा है और आगमाश्रित बुद्धि ज्ञानरूपा है। इसीसे अज्ञानीके भोगोंको बन्धका और ज्ञानीके भोगोंको निर्जराका कारण बतलाया जाता है।
असम्मोह-पूर्वक कार्य निर्वाण सुखके प्रदाता सन्त्यसंमोहहेतूनि कर्माण्यत्यन्तशुद्धितः ।
निर्वाणशर्मदायीनि भवातीताध्वगामिनाम् ॥८६॥ 'जो कार्य असम्मोहपूर्वक होते हैं वे भवातीत मार्गपर चलनेवालोंको अत्यन्त शुद्धिके कारण निर्वाणसुखके प्रदाता होते हैं।'
व्याख्या-यहाँ तीसरे असम्मोह हेतु कार्योंके फलकी बातको लिया गया है, जिनके स्वामी भवातीत मार्गगामी होते हैं-भवाभिनन्दी नहीं-और उन्हें मुक्ति-सुख का दाता लिखा है; क्योंकि वे चित्तकी अत्यन्त शुद्धिके लिये हुए होते हैं।
१. मु तनूमतां।
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