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________________ १८८ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ८ कान्तारे पतितो दुर्गे गर्ताद्यपरिहारतः।। यथाऽन्धो नाश्नुते मार्गमिष्टस्थान-प्रवेशकम् ॥७७।। पतितो भव-कान्तारे कुमार्गापरिहारतः । तथा नाप्नोत्यशास्त्रज्ञो माग मुक्तिप्रवेशकम् ।।७८।। 'जिस प्रकार दुर्गम वनमें पड़ा हुआ अन्धा मनुष्य खड्डे आदिका परित्याग न कर सकनेसे इष्ट-स्थानमें प्रवेश करानेवाले मार्गको नहीं पाता है उसी प्रकार संसार-वनमें पड़ा हुआ अशास्त्रज्ञ प्राणी कुमार्गका परित्याग न कर सकनेसे मुक्तिप्रवेशक मार्गको प्राप्त नहीं होता-उस सन्मार्गपर नहीं लगता है जिसपर चलनेसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है।' व्याख्या-यहाँ आगम-शास्त्रकी उपयोगिता, आवश्यकता तथा महिमाका उपसंहार करते हुए उसे दुर्गम-वनमें अकेले पड़े हुए अन्ध पुरुषके उदाहरण-द्वारा कुछ और स्पष्ट करके बतलाया गया है । दुर्गम वनमें अकेला पड़ा हुआ अन्धा जिस प्रकार चलते समय गड्ढे, खडु तथा कूप-खाई आदिका परिहार न कर सकनेसे उनमें गिर जाता है, पड़ा-पड़ा कष्ट भोगता है और अपने इष्ट स्थानको प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार संसार-वनमें पड़ा हुआ शास्त्रज्ञानसे विहीन अन्धा साधु-चर्या करते समय कुमार्गोका परिहार न कर सकनेसे कुमार्गोंमें फँसकर अपने इष्टस्थान-मुक्तिको प्राप्त करानेवाले सन्मार्गको प्राप्त करनेमें असमर्थ होता है। __इस प्रकार ११ पद्योंमें साधुके लिए आगम-शास्त्रकी भारी उपयोगितादिका यहाँ वर्णन किया गया है, जिसके द्वारा प्राप्त ज्ञानसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है । समान अनुष्ठानके होनेपर भी परिणामादिसे फल-भेद यतः समेऽप्यनुष्ठाने फलभेदोऽभिसन्धितः । स ततः परमस्तत्र ज्ञेयो नीरं कृषाविव ॥७६॥ बहुधा भिद्यते सोऽपि रागद्वेषादिभेदतः । नानाफलोपभोक्तणां नृणां बुद्धयादिभेदतः ॥८०॥ 'चकि समान अनुष्ठानके होनेपर भी परिणामसे फलमें भेद होता है इसलिए फलप्राप्तिमें परिणामको उत्कृष्ट स्थान प्राप्त है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि खेतीमें (जोतने-बोने आदि रूप मान अनुष्ठानके होनेपर भी) जलको विशेष स्थान प्राप्त है-ठीक समयपर यथेष्ट मात्रामें यदि खेतीको जल दिया जाता है तो वह उत्तम होती है। और वह परिणाम ( अभिप्राय ) भी राग-द्वेषादिके भेदसे तथा फलका उपभोग करनेवाले विविध मनुष्योंको बुद्धि आदिके भेदसे बहुधा भेद रूप है।' व्याख्या-इन दोनों पद्योंमें चारित्रका अनुष्ठान समान होनेपर भी उसके फलभेदकी बात कही गयी है। फलभेदमें भावकी प्रधानताको बतलाते हुए खेतीमें जलके उदाहरण-द्वारा उसे स्पष्ट किया गया है, शुभराग तथा अशुभराग और द्वेष-मोहादिककी तर-तमताके भेदसे १. न लभते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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