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________________ पद्य ७१-७६] चारित्राधिकार १८७ मायामयौषधं शास्त्र शास्त्र पुण्यनिबन्धनम् । चक्षुः सर्वगतं शास्त्र शास्त्र सर्वार्थसाधकम् ।।७३।। 'मायारूप रोगको दवा शास्त्र, पुण्यका कारण शास्त्र, सर्वपदार्थोको देखनेवाला नेत्र शास्त्र और सर्वप्रयोजनोंका साधक शार व्याख्या-यहाँ आगम-शास्त्रकी महिमाका वर्णन करते हुए उसे मायाचार रूप रोगकी ओषधि, सर्वव्यापी नेत्र, पुण्यके उपार्जनमें सहायक और सर्वप्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाला साधक बतलाया है। न भक्तिर्यस्य तत्रास्ति तस्य धर्म-क्रियाखिला । अन्धलोकक्रियातुल्या कर्मदोषादसत्फला ॥७४॥ 'जिसको आगम-शास्त्रमें भक्ति नहीं उसकी सारी धर्मकिया कर्मदोषके कारण अन्धे व्यक्तिको क्रियाके समान होती है, और वह क्रिया दूषित होनेके कारण सत्फलको-उन्तम अथवा यथेष्ट फलको-नहीं फलती।' व्याख्या-उक्त आगम-शास्त्रके प्रति जिसकी भक्ति नहीं-आदरभाव नहीं उस साधुकी सब क्रियाको--सारे धर्माचरणको-यहाँ अन्धपुरुषकी क्रियाके समान बतलाया है; क्योंकि वह क्रिया विवेक-विहीन दूषित होनेके कारण सत्फलको नहीं फलती। यथोदकेन वस्त्रस्य मलिनस्य विशोधनम् । रागादि-दोष-दुष्टस्य शास्त्रण मनसस्तथा ॥७॥ 'जिस प्रकार मलिन वस्त्रका जलसे शोधन होता है उसी प्रकार रागादि दोषसे दूषित हुए मनका संशोधन शास्त्रसे होता है।' व्याख्या-यहाँ भी शास्त्रके महत्त्वको एक उदाहरण-द्वारा स्पष्ट करते हुए लिखा है कि रागादिक दोषोंसे दूषित हुआ साधुका मन शास्त्रके अध्ययनादिसे उसी प्रकार विशुद्धिको प्राप्त होता है जिस प्रकार कि मलसे मलिन वस्त्र जलसे धुलनेपर शुद्ध तथा साफ होता है। आगमे शाश्वती बुद्धिमुक्तिस्त्री-शंफली यतः। ततः सा यत्नतः कार्या भव्येन भवभीरुणा ॥७६॥ 'चूंकि आगम-शास्त्रमें निरन्तर लगी हुई बुद्धि मुक्तिस्त्रीको प्राप्त करने में दूतोके समान है-मुक्तिको प्राप्त कराती है इसलिए जो संसारसे-संसारके दुःखोंसे भयभीत भव्य है उसे यत्नपूर्वक बुद्धिको शास्त्र में-शास्त्र के अध्ययन-श्रवण-मननादिमें लगाना चाहिए।' व्याख्या-यहाँ अलंकारकी भाषामें आगममें निरन्तर लगी रहनेवाली साधुकी बद्धिका मुक्तिस्त्रीसे मिलानेवाली दूतीके समान बतलाया है और इसलिए संसारसे भयभीत भव्य साधुको सदा यत्नके साथ अपनी बुद्धिको आगमके अध्ययनादिमें प्रवृत्त करना चाहिएइससे उसको मुक्तिमार्गकी प्राप्ति होगी। १. मु द्रव्यनिबंधनं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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