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१७४ योगसार-प्राभृत
[अधिकार ८ कोन पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए संयमो हन्यते येन प्रार्थ्यते यदसंयतैः।
येन संपद्यते मूर्छा तन्न ग्राह्य हितोद्यतैः ॥४१॥ ____ 'जो अपने हितको साधनामें उद्यमो साधु हैं उनके द्वारा वह पदार्थ ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए जिससे संयमको हानि हो, ममत्व परिणामकी उत्पत्ति हो अथवा जो असंयमियोंके द्वारा प्रार्थित हो-असंयमी लोग जिसे निरन्तर चाहते हैं।'
व्याख्या-अपवादमार्गमें जिस परिग्रहको ग्रहण नहीं करना चाहिए उसका यहाँपर प्रायः स्पष्टीकरण किया गया है और उसमें मुख्यतः तीन बातोंका समावेश किया गया हैएक तो जिससे संयमका हनन होता हो, दूसरे जो असंयमी जनोंकी प्रार्थनाका विषय हो और तीसरे जो ममत्व-परिणामका कारण हो, इन तीन दोषोमें-से किसी भी दोषका जो कारण हो उस परिग्रहको यहाँ निषिद्ध बतलाया है । अतः जो परिग्रह इन दोषोंमें-से किसीका कारण नहीं उसे अप्रतिषिद्ध समझना चाहिए। प्रवचनसारमें अप्रतिषिद्धरूपसे ही ऐसे परिग्रहका उपधि-उपकारके रूपमें वर्णन करके उसके अन्यरूपमें ग्रहणकी प्रेरणा की है, जैसा कि पादटिप्पणीमें उद्धृत तुलनात्मक गाथा २३ से प्रकट है ।
कायसे भी निस्पृह मुमुक्षु कुछ नहीं ग्रहण करते मोक्षाभिलाषिणां येषामस्ति कायेऽपि निस्पृहा ।
न वस्त्वकिंचनाः किंचित् ते गृह णन्ति कदाचन ॥४२॥ "जिन मोक्षाभिलाषियोंकी अपने शरीरमें भी विरक्ति है वे निष्किंचन साधु कदाचित् कोई वस्तु ग्रहण नहीं करते।
व्याख्या-यहाँ उन उत्कट मोक्षाभिलाषियोंका उल्लेख है जो उस प्राकृतिक रूपसे गृहीत हुए शरीरमें भी निस्पृहताके साथ वर्तते हैं जो कि मुनिपर्यायका सहकारी कारण होनेके कारण निपिद्ध नहीं है। वे उसे परद्रव्य होनेसे परिग्रह समझते हैं, अनुग्रहका विषय न मानकर उपेक्ष्य मानते हैं और इसलिए उसके प्रतिकारमें-इलाज-उपचारमें-प्रवृत्त नहीं होते । ऐसे महान उत्सर्गमार्गी अकिंचन-निष्परिग्रह मुनि कभी कोई वस्तु ग्रहण नहीं करते हैं । ऐसे उत्सर्गमार्गी मुनिके शरीरसे भिन्न अन्य परिग्रह तो भला कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता । शरीर भी निर्ममत्वके कारण पूर्णतः परिग्रहभावको प्राप्त नहीं होता।
स्त्रियोंका जिनलिंग-ग्रहण सव्यपेक्ष क्यों ? 'यत्र लोकद्वयापेक्षा जिनधर्मे न विद्यते । तत्र लिङ्ग कथं स्त्रीणां सव्यपेक्षमुदाहृतम् ॥४३॥
१. अप्पडिकूट्र उवधि अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिदं गेहदु समणो जदि वि. अप्पं ॥३-२३॥-प्रवचनसार। २. किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोऽध देहे वि। संग त्ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिष्टा । ३-२४॥ -प्रवचनसार । ३. पेच्छदि ण हि इह लोगं परं च समणिद देसिदो धम्मो । धम्मम्हि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ॥३-२५(क)-प्रवचनसार।
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