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________________ पद्य ३६-४० ] चारित्राधिकार १७३ 'जो योगी वस्त्र - पात्रादिका रखना धरना, चलाना-रक्षा करना, धोना सुखाना करता है। उसके चित्तका विक्षेप नहीं मिटता । उनको करते हुए आरम्भ, असंयम तथा ममताका निषेध ( अभाव ) कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता और इस तरह परद्रव्यमें आसक्त साधुके स्वात्मसिद्धि कैसी ? - वह नहीं बन सकती ।' व्याख्या - वस्त्र - पात्रादि-परिग्रहों को रखकर जो कार्य साधुको करने पड़ते हैं उनका संक्षेपमें उल्लेख करके यहाँ चित्तके विक्षेपको स्पष्ट किया गया है। साथ ही यह बतलाया है कि उक्त कार्यो को करते हुए प्राणवधका, असंयमका और ममत्व- परिणामका अभाव कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता और इन अभावोंके न बन सकनेसे पर द्रव्यमें रतिके कारण स्वात्मसिद्धि कैसे हो सकती है ? वह किसी प्रकार भी नहीं बन सकती, और इसलिए स्वात्म साधनाका मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है । अतः उक्त परिग्रहों का रखना सर्वथा उचित नहीं कहा जा सकता । जिसका ग्रहण- त्याग करते कोई दोष न लगे उसमें प्रवृत्तिको व्यवस्था 'न यत्र विद्यते च्छेदः कुर्वतो ग्रह-मोक्षणे । द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय साधुस्तत्र प्रवर्तताम् ||४०|| 'जिस (बाह्य) परिग्रहको ग्रहण-मोचन करते हुए साधुके दोष नहीं लगता - प्रायश्चित्तकी आवश्यकता नहीं होती - उसमें द्रव्य क्षेत्रको भले प्रकार जानकर साधु प्रवृत्त होवे ।' व्याख्या - यहाँ अपवाद मार्गकी दृष्टिको लेकर कथन किया गया है । उत्सर्ग मार्ग में चूँकि आत्माके अपने शुद्धात्मभाव के सिवाय दूसरे परद्रव्य - पुद्गलका कोई भाव नहीं होता इसीलिए उसमें सभी परिग्रहोंका पूर्णतः त्याग विहित है। अपवाद मार्ग उससे कुछ भिन्न है, उसमें द्रव्य-क्षेत्र -काल- भावकी दृष्टिको लेकर अशक्तिके कारण कुछ बाह्य परिग्रहका ग्रहण किया जाता है, उसी परिग्रहके सम्बन्ध में यहाँ कुछ व्यवस्था की गयी है और वह यह है कि जिस परिग्रहके ग्रहण-त्यागमें उसके सेवन करनेवालेको छेद- दोष न लगे - शुद्धोपयोग रूप संयमका घात न हो - उस परिग्रहको वह साधु अपने द्रव्य क्षेत्र-काल-भावको जानकर ग्रहण कर सकता है । यहाँ प्रयुक्त हुए 'द्रव्यं क्षेत्रं' पद उपलक्षणसे काल और भावके भी सूचक हैं । प्रवचनसार में जहाँ 'कालं' 'खेत्तं' पदों का प्रयोग है वहाँ इस पद्यमें 'द्रव्यं' 'क्षेत्र' पदों का प्रयोग है, जो कि उपलक्षणसे स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टिके अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारोंके द्योतक जान पड़ते हैं, यही इसमें प्रवचनसारके कथनसे विशेषता पायी जाती है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारोंके परिज्ञानसे ही वस्तुका ठीक परिज्ञान होता है और इसीसे अपनी शक्तिको तोलकर अपवादमार्गको ग्रहण किया जाता है । यहाँ वही अपवाद मार्ग ग्राह्य है जिसमें छेद के लिए स्थान न हो- ऐसा कोई बाह्य परिग्रह ग्रहण न किया जाय जो अपने शुद्धोपयोगरूप संयमका घातक हो । १. छेदो जेण ण विज्जदि ग्रहण विसग्गेसु सेवमाणस्स । समपो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ।।३-२२॥ - प्रवचनसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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