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पद्य १८-२१]
चारित्राधिकार
मूढा लोभपराः क्रूरा भीरवोऽसूयकाः शठाः । भवाभिनन्दिनः सन्ति निष्फलारम्भकारिणः ॥ १६ ॥
'जो मूढ - दृष्टिविकारको लिये हुए मिध्यादृष्टि – लोभमें तत्पर, क्रूर, भीरु ( डरपोक ), ईर्ष्यालु और विवेक-विहीन हैं वे निष्फल-आरम्भकारी -- निरर्थक धर्मानुष्ठान करनेवाले-भवाभिनन्दी हैं ।'
व्याख्या - यहाँ भवाभिनन्दियोंके लिए जिन विशेषणोंका प्रयोग किया गया है वे उनकी प्रकृतिके द्योतक हैं। ऐसे विशेषण - विशिष्ट मुनि ही प्रायः उक्त संज्ञाओंके वशीभूत होते हैं, उनके सारे धर्मानुष्ठानको यहाँ निष्फल - अन्तः सार- विहीन - घोषित किया गया है । अगले पद्य में उस लोकपंक्तिका स्वरूप दिया है, जिसमें भवाभिनन्दियोंका सदा आदर बना रहता है।
भवाभिनन्दियों द्वारा आदृत लोकपंक्तिका स्वरूप
आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपङक्तिरसौ मता ॥२०॥
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'अविवेकी साधुओंके द्वारा मलिन अन्तरात्मासे युक्त होकर लोगोंके आराधन - अनुरंजन अथवा अपनी ओर आकर्षणके लिए जो धर्म-क्रिया की जाती है वह 'लोक-पंक्ति' कहलाती है ।'
व्याख्या - यहाँ लौकिकजनों-जैसी उस क्रियाका नाम 'लोकपंक्ति' है जिसे अविवेकीजन दूषित - मनोवृत्तिके द्वारा लोकाराधनके लिए करते हैं अर्थात् जिस लोकाराधनमें ख्याति-लाभपूजादि - जैसा अपना कोई लौकिक स्वार्थ सन्निहित होता है । इसीसे जिस लोकाराधनरूप क्रिया में ऐसा कोई लौकिक स्वार्थ संनिहित नहीं होता और जो विवेकी विद्वानोंके द्वारा केवल धर्मार्थ की जाती है वह लोकपंक्ति नहीं होती, तब क्या होती है उसे अगले पद्य में दर्शाया है । धर्मार्थ लोकपंक्ति और लोकपंक्तिके लिए धर्म
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धर्माय क्रियमाणा सा कल्याणाङ्गं मनीषिणाम् । तन्निमित्तः पुनर्धर्मः पापाय हतचेतसाम् ||२१||
'जो विवेकशील विद्वान् साधु हैं उनकी धर्मार्थ की गयी उक्त लोकाराधनरूप क्रिया कल्याणकारिणी होती है और जो मूढचित्त अविवेकी हैं, उन साधुओंका लोकाराधनके निमित्त-लोगोंको अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किया गया धर्म पापबन्धका कारण होता है ।'
व्याख्या—यहाँ विवेकी जनोंके द्वारा धर्मके अर्थ - धर्मकी वृद्धि प्रसृति रक्षा और प्रभावनाके लिए - जो लोकाराधन-क्रिया की जाती है उसे तो कल्याणकारिणी बतलाया है परन्तु लोकाराधनके लक्ष्यको लेकर जो धर्म किया जाता है उसे पापबन्धका कारण बतलाया है । इस तरह धर्मके लिए लोकाराधन और लोकाराधनके लिए धर्मसाधन इन दोनों में परस्पर बड़ा अन्तर है- एक पुण्यरूप है, दूसरा पापरूप है। इससे यह भी फलित हुआ कि धर्मसाधन पुण्यबन्ध ही नहीं, कभी-कभी दृष्टिभेदके कारण पापबन्धका भी कारण होता है । भवाभिनन्दियोंका धर्मानुष्ठान प्रायः इसी कोटि में आता है ।
१. आ क्रूरा: । २. कथिता ।
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