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________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ८ व्याख्या--यहाँ उस साधुको मलिनचारित्री बतलाया है जो ज्ञानी होनेपर भी परपीडक बना हुआ है और उसे उस दीपककी उपमा दी है जो प्रकाशसे युक्त होनेपर भी तापक बना हुआ है -- अनेक कीट-पतंगों को जला-भुनाकर पीड़ा पहुँचाता है--और इसलिए उससे जो काला काजल प्रसूत होता है वह उसके मलिनाचारका द्योतक है । १६२ भवाभिनन्दी मुनियोंका रूप भवाभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञा - वशीकृताः । कुर्वन्तोऽपि परं धर्मं लोक- पङ्क्ति-कृतादराः || १८ || 'कुछ मुनि परम धर्मका अनुष्ठान करते हुए भी भवाभिनन्दी - संसारका अभिनन्दन करनेवाले अनन्त संसारी तक- - होते हैं, जो कि संज्ञाओं के - आहार, भय, मैथुन और परिग्रह नामकी चार संज्ञाओं - अभिलाषाओंके -- वशीभूत हैं और लोकपंक्ति में आदर किये रहते हैं— लोगोंके आराधने- रिझाने आदिमें रुचि रखते हुए प्रवृत्त होते हैं।' व्याख्या — यद्यपि जिनलिंगको - निर्ग्रन्थ जैनमुनि - मुद्राको - धारण करनेके पात्र अति निपुण एवं विवेक-सम्पन्न मानव ही होते हैं फिर भी जिनदीक्षा लेने वाले साधुओंमें कुछ ऐसे भी निकलते हैं जो बाह्यमें परम धर्मका अनुष्ठान करते हुए भी अन्तरंग से संसारका अभिनन्दन करनेवाले होते हैं । ऐसे साधु-मुनियोंकी पहचान एक तो यह है कि वे आहारादि चार संज्ञाओंके अथवा उनमें से किसीके भी वशीभूत होते हैं; दूसरे लोकपंक्तिमें- लौकिकजनोंजैसी क्रियाओंके करनेमें उनकी रुचि बनी रहती है और वे उसे अच्छा समझकर करते भी हैं। आहार-संज्ञाके वशीभूत मुनि बहुधा ऐसे घरोंमें भोजन करते हैं जहाँ अच्छे रुचिकर एवं गरिष्ठ- स्वादिष्ट भोजनके मिलनेकी अधिक सम्भावना होती है, उच्छिष्ट भोजनके त्यागकी - आगमोक्त दोषोंके परिवर्तनकी— कोई परवाह नहीं करते, भोजन करते समय अनेक बाह्य क्षेत्रोंसे आया हुआ भोजन भी ले लेते हैं, जो स्पष्ट आगमाज्ञाके विरुद्ध होता है । भय-संज्ञाके वशीभूत मुनि अनेक प्रकारके भयोंसे आक्रान्त रहते हैं, परीषहोंके सहनसे घबराते तथा वनवाससे डरते हैं; जबकि सम्यग्दृष्टि सप्त प्रकारके भयोंसे रहित होता है । मैथुनसंज्ञाके वशीभूत मुनि ब्रह्मचर्य महात्रतको धारण करते हुए भी गुप्त रूपसे उसमें दोष लगाते हैं । और परिग्रह - संज्ञावाले साधु अनेक प्रकारके परिग्रहोंकी इच्छाको धारण किये रहते हैं, पैसा जमा करते हैं, पैसेका ठहराव करके भोजन करते हैं, अपने इष्टजनोंको पैसा दिलाते हैं, पुस्तकें छपा-छपाकर बिक्री करते-कराते रुपया जोड़ते हैं, तालाबन्द बोक्स रखते हैं, बोक्सकी ताली कमण्डलु आदिमें रखते हैं, पीछीमें नोट छिपाकर रखते हैं, अपनी पूजाएँ बनवा छपा हैं और अपनी जन्मगाँठका उत्सव मनाते हैं । ये सब लक्षण उक्त भवाभिनन्दियोंके हैं, जो के 'संज्ञावशीकृता' और 'लोकपंक्तिकृतादरा:' इन दोनों विशेषणोंसे फलित होते हैं और आजकल अनेक मुनियों में लक्षित भी होते हैं । Jain Education International १. आहार-भय-परिग्गह मेहुण-सण्णाहि मोहितोसि तुमं । भमिओ संसारवणे आणाइकालं आणप्पव सो ॥ ११० ॥ कुन्दकुन्द, भावपाहुड | २. मुक्तिं यियासता धायं जिनलिङ्गं पटीयसा । -यो० प्रा०, ८- १ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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