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________________ मोक्षाधिकार मोक्षका स्वरूप મેં 'अभावे बन्ध- हेतूनां निर्जरायां च भास्वरः । समस्त कर्म-विश्लेषो मोक्षो वाच्यो पुनर्भवः ॥ १॥ 'कर्मबन्धके कारणों का अभाव होनेपर और ( संचित कर्मोंकी ) निर्जरा होनेपर (आत्मासे) निःशेष कर्मो का जो विश्लेष है-सम्बन्धाभाव अथवा पृथकीभवन है - वह भास्वर मोक्ष है, जिसे 'अपुनर्भव' कहते हैं--क्योंकि मोक्षके पश्चात् फिर संसारमें जन्म नहीं होता ।' व्याख्या -- 'मोक्ष' नामक सातवें अधिकारका प्रारम्भ करते हुए यहाँ सबसे पहले मोक्षका स्वरूप दिया गया है और वह है आत्मासे समस्त कर्मोंका पूर्णतः सम्बन्धाभाव, जिसे 'विश्लेष' तथा 'विप्रमोक्ष' भी कहते हैं और वह तभी बनता है जब बन्धके मिथ्या दर्शनादि वे सभी हेतु नष्ट हो जाते हैं जिनका आस्रव तथा बन्ध अधिकारोंमें वर्णन है, साथ ही संचित कर्मोंकी पूर्णतः निर्जरा भी हो जाती है, जिससे न कोई नया कर्म बन्धको प्राप्त हो सकता है और न कोई पुराना कर्म अवशिष्ट ही रहता है। इस तरह सर्व प्रकार के समस्त कर्मोंका जो सदाके लिए पृथकीभवन ( सम्बन्धाभाव ) है उसे 'मोक्ष' कहते हैं जिसका दूसरा नाम यहाँ 'अपुनर्भव' बतलाया है, क्योंकि भव प्राप्ति अथवा संसारमें पुनः जन्म लेनेका कारण कर्मरूपी बीज था, वह जब जलकर नष्ट हो गया तब फिर उसमें अंकुर नहीं उगता । कहा भी है :-- दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्म-बीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवाङ्करः ॥ - तत्त्वार्थसार-८-७ । आत्मामें केवलज्ञानका उदय कब होता है उदेति केवलं जीवे मोह - विघ्नावृति-क्षये । भानु-बिम्बमिवाकाशे भास्वरं तिमिरात्यये ||२|| ' मोह अन्तराय और आवरणोंका क्षय होनेपर आत्मामें केवलज्ञान उसी प्रकार उदयको प्राप्त होता है जिस प्रकार ( रात्रिका घोर ) अन्धकार दूर होनेपर आकाश में सूर्यं बिम्ब उदयको प्राप्त होता है ।' Jain Education International व्याख्या - यहाँ 'मोह' शब्द से समूचा मोहनीय कर्म विवक्षित है, जिसकी मिथ्यात्व तथा कपायादिके रूपमें २८ प्रकृतियाँ है; 'विघ्न' शब्दसे सारा अन्तराय कर्म विवक्षित है, जिसकी दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य नामसे ५ प्रकृतियाँ हैं, 'आवृति' शब्दसे आवरण विवक्षित है, १. बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म-विप्रमोक्षा मोक्षः । त० सूत्र १०-२ । २. आ निर्जरायाश्च भावतः । ३. आ जीवो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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