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________________ पद्य २८-३३ ] निर्जराधिकार १२७ व्याख्या - पिछले पद्यानुसार जब आत्मा परद्रव्यसे सर्वथा बहिर्भूत है तब परद्रव्यों के त्यागकी इच्छासे ही उसकी भावना की जानी चाहिए न कि परद्रव्योंको साथ लेकर । जो परद्रव्यको नहीं छोड़ता - परद्रव्यमें आसक्ति बनाये रखता है - वह अपने आत्मस्वरूपकी अवज्ञा करता है और इसलिए स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धिको प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता । आत्मद्रव्यको जानने के लिए परद्रव्यका जानना आवश्यक विज्ञातव्यं परद्रव्यमात्मद्रव्य - जिघृक्षया । अविज्ञातपरद्रव्यो नात्मद्रव्यं जिघृक्षति ||३१|| 'आत्मद्रव्यको ग्रहण करनेकी इच्छासे परद्रव्यको जानना चाहिए । जो परद्रव्यके ज्ञानसे रहित है वह आत्मद्रव्यके ग्रहणको इच्छा नहीं करता ।' व्याख्या -- यहाँ पर द्रव्यको जाननेकी दृष्टिका निर्देश किया गया है और वह है अपने आत्मद्रव्यको ग्रहण की दृष्टि । जो अपने साथ रले मिले परद्रव्यको नहीं जानता-पहचानता उसे अपने आत्मद्रव्यको पृथक रूपसे ग्रहणकी इच्छा ही नहीं होती । जिसको स्व-परका भेदविज्ञान न होनेसे आत्मद्रव्यके पृथक रूपसे ग्रहणकी इच्छा तथा भावना नहीं होती वह पिछले पद्य में वर्णित परद्रव्यके त्यागकी इच्छासे स्वात्मरूपकी भावना कैसे कर सकता है ? नहीं कर सकता । अतः शुद्धस्वात्मद्रव्यकी उपलन्धि रूप सिद्धिकी दृष्टिसे परद्रव्यका जानना आवश्यक है - अन्यथा स्वात्मोपलब्धि नहीं होती । जगत् के स्वभावकी भावनाका लक्ष्य स्वतच्चरक्तये नित्यं परद्रव्य- विरक्तये । स्वभावो जगतो भाव्यः समस्तमलशुद्धये || ३२ || 'स्वतत्त्वमें अनुरक्ति, परद्रव्योंसे विरक्ति और समस्त कर्ममलकी शुद्धिके लिए जगत्का स्वभाव भावना किये जानेके योग्य है ।' व्याख्या - यहाँ जगत्के स्वभावकी सदा भावना करनेका उपदेश दिया है और उसके तीन उद्देश्य बतलाये हैं - एक स्वात्मद्रव्य में रति, दूसरा परद्रव्यसे विरक्ति और तीसरा समस्त कर्म से आत्मा की शुद्धि । समस्त कर्ममल में द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप तीनों प्रकारका कर्ममल आता है । जगत् छह द्रव्योंसे बना है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इन छहों के यथार्थ स्वरूपके चिन्तनमें जगत् के स्वभावकी सारी भावना आ जाती है । ग्रन्थ प्रथमादि अधिकारोंमें इनका कितना ही वर्णन आ चुका है । एक आश्चर्य की बात यत् पश्चाभ्यन्तरैः पापैः सेव्यमानः प्रबध्यते । 3 न तु पञ्चवहिर्भूतैराश्चर्य' किमतः परम् ||३३|| 'जो जीव अन्तरंग में स्थित पाँच पापोंसे सेव्यमान है वह तो बन्धको प्राप्त होता है किन्तु जो बहिर्भूत पाँचों पापोंसे सेव्यमान नहीं है वह बन्धको प्राप्त नहीं होता इससे ज्यादा आश्चर्यको बात और क्या है ?' १. गृहीतुमिच्छया । Jain Education International २. मु जगतां । ३. मु पंचबहिर्भूतमाश्चर्यं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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