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________________ १२६ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ६ होते हैं और परीषहोंके अभावमें जो सुख प्राप्त होता है उन सुख-दुःख दोनोंके साथ अपनेको बाँधना नहीं चाहिए-सुखी-दुःखी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सुखी-दुःखी होनेसे आर्तध्यान बनता है, जो बहुत ज्यादा कर्मबन्धका कारण होता है और उससे निर्जराका लक्ष्य नष्ट हो जाता है। पिछले एक पद्य (६) में कहा भी है कि यदि सरोवरमें नये जलका प्रवेश हो रहा है तो सरोवरकी रिक्तता कैसी ? अतः नये कर्मबन्धको प्राप्त न हों और पुराने कर्मोंका विच्छेद हो जाये तभी निर्जराकी सार्थकता है। इसके लिए उदयको प्राप्त हुए कर्मों में रागद्वेष न करके समता भावके रखने की बड़ी जरूरत है। आत्मशुद्धिका साधन आत्मज्ञान, अन्य नहीं आत्मावबोधतो नूनमात्मा शुद्धयति नान्यतः । अन्यतः शुद्धिमिच्छन्तो विपरीतदृशोऽखिलाः ॥२८॥ "निश्चयसे आत्मा आत्मज्ञानसे शुद्ध होता है, अन्यसे नहीं। जो अन्य पदार्थसे शुद्धि चाहते है वे सब विपरीतबुद्धि अथवा मिथ्यादृष्टि हैं।' व्याख्या-जिस स्वात्माको जाननेके लिए २६वें पद्यमें परीषहोंको सहनेकी बात कही गयी है उसके परिज्ञानसे ही आत्मामें उत्तरोत्तर शुद्धिकी प्राप्ति होती है। जो लोग किसी दूसरे उपायसे आत्माकी शुद्धि मानते अथवा करना चाहते हैं उन्हें यहाँ विपरीत दृष्टिमिथ्या दृष्टि बतलाया है। इससे आत्मशुद्रिके लिए आत्मज्ञानका होना परमावश्यक है और सब तो सहायक अथवा निमित्तकारण हो सकते हैं। परद्रव्यसे आत्मा स्पष्ट तथा शुद्ध नहीं होता स्पृश्यते शोध्यते नात्मा मलिनेनामलेन वा । पर-द्रव्य-बहिभूतः परद्रव्येण सर्वथा ॥२६॥ _ 'आत्मा जो परद्रव्यसे सर्वथा बहिर्भूत है वह परद्रव्यके द्वारा, चाहे वह समल हो या निर्मल, किसी तरह स्पृष्ट तथा शुद्ध नहीं किया जाता।' व्याख्या-इस पद्यमें आत्माकी शुद्धिके सिद्धान्तका निर्देश करते हुए यह बतलाया है कि आत्मा परद्रव्योंसे बहिर्भूत है-किसी भी परद्रव्यका उसके साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं बनता-ऐसी स्थिति में किसी भी परद्रव्यसे, चाहे वह निर्मल हो या समल, जब आत्मा सर्वदा स्पर्शित नहीं होता तब उसके द्वारा शुद्धिको प्राप्त कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। इस तरह आत्माकी शुद्धिमें स्वात्मज्ञानको छोड़कर दूसरे सब उपायोंको वस्तुतः असमर्थ बतलाया है। स्वात्मरूपकी भावनाका फल पर द्रव्यका त्याग स्वरूपमात्मनो भाव्यं परद्रव्य-जिहासया । न जहाति परद्रव्यमात्मरूपाभिभावकः ॥३०॥ 'परद्रव्यके त्यागको इच्छासे आत्मस्वरूपको भावना करनी चाहिए। जो परद्रव्यको नहीं छोड़ता वह आत्मस्वरूपका अभिभावक है-अनादर करनेवाला है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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