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________________ पद्य १७-२२] निर्जराधिकार १२३ 'शुभ-अशुभ विकल्पके द्वारा शुभ-अशुभ कर्मका आगमन होता है । सम्पूर्ण द्रव्य समूहके भोगते हुए भी जो निर्विकल्प है-राग-द्वेषादि रूप किसी प्रकारका विकल्प नहीं करता-उसके कर्मको निर्जरा होती है।' । __व्याख्या-यहाँ पिछले पद्यको कुछ स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जिस किसी कर्ममें करते अथवा भोगते हुए शुभ-अशुभका विकल्प किया जाता है-उसे अच्छा या बुरा समझा जाता है-उससे शभ-अशभ कर्मका आसव-बन्ध होता है। और इसलिए जो ज्ञानी साधु कर्मका फल भोगते समय निर्विकल्प रहता है किसी भी प्रकारका राग-द्वेप नहीं करताउसका वह भोग निर्जराका कारण होता है-बन्धका नहीं। अज्ञानीके द्वारा यह बात नहीं बनती वह अपने अज्ञानवश उसमें राग-द्वेषादिका विकल्प किये बिना नहीं रहता और इसलिए नये कर्म-बन्धको प्राप्त होता है। निकिचन-योगी भी निर्जराका अधिकारी अहमस्मि न कस्यापि न ममान्यो बहिस्ततः । इति निष्किचनो योगी धुनीते निखिलं रजः ॥२०॥ 'मैं किसीका भी नहीं हूँ और न अन्य कोई बाह्य पदार्थ मेरा है, इस प्रकार परको न अपनाता हुआ निष्किचन-निःसंग-योगी सारे कर्मरजको धुन डालता है।' व्याख्या-यहाँ निर्जराके एक दूसरे अधिकारीका उल्लेख है और वह है 'निष्किचन योगी', जिसका स्वरूप है 'मैं किसीका नहीं हूँ. और इसलिए दूसरा कोई भी बाह्य पदार्थ मेरा नहीं है।' वस्तुतः अकिंचन, निःसंग अथवा अपरिग्रही योगीका यही रूप है। जो दूसरे चेतन-अचेतन पदार्थोंको अपने बनाये रखता है वह अपरिग्रही अथवा अकिंचन कैसा ? और इसलिए निर्जराका अधिकारी नहीं। विविक्तात्माको छोड़कर अन्योपासकको स्थिति मुक्त्वा विविक्तमात्मानं मुक्त्यै येऽन्यमुपासते । ते भजन्ति हिमं मूढा विमुच्याग्निं हिमच्छिदे ॥२१॥ 'विविक्त-कर्म कलंक विमुक्त--आत्माको छोड़कर जो अन्यकी उपासना करते हैं वे मूढ शीतका नाश करनेके लिए अग्निको छोड़कर हिमका--बर्फका-सेवन करते हैं।' व्याख्या-यहाँ मुक्तिके लिए अकिंचन भाव अथवा निःसंगताकी साधनामें परकी उपासनाको भी बाधक बतलाते हुए यह प्रतिपादन किया है कि अपने शुद्ध खालिस आत्माको छोड़कर जो परकी उपासना करते हैं वे मूढ़ शीतके विनाशार्थ अग्निको छोड़कर शीतकारी पदार्थोंका ही सेवन करते हैं। स्वदेहस्थ परमात्माको छोड़कर अन्यत्र देवोपासकको स्थिति योऽन्यत्र वीक्षते देवं देहस्थे परमात्मनि । सोऽन्ने सिद्ध गृहे शङ्के भिक्षां भ्रमति मूढधीः ॥२२॥ १. आ भावो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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