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________________ १२२ योगसार-प्राभृत [अधिकार आगम प्रदर्शित सारा अनुष्ठान किसके निर्जराका हेतु प्रदर्शितमनुष्ठानमागमेन तपस्विनः । निर्जराकारणं सर्व ज्ञात-तत्त्वस्य जायते ॥१७॥ 'आगमके द्वारा प्रदर्शित सारा अनुष्ठान तत्त्वज्ञ-तपस्वीके निर्जराका कारण होता है।' व्याख्या-यहाँ आगम-द्वारा प्रदर्शित सारे अनुष्टानको निर्जराका कारण बतलाते हुए उसके अनुष्ठाता तपस्वी-साधका एक खास विशेपण 'ज्ञाततत्त्वस्य' दिया गया है और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि जो साधु त्तत्त्वोंका ज्ञाता नहीं है अथवा जिसने आत्मतत्त्वको नहीं समझा है उसका आगम-प्रदर्शित अनुष्ठान निर्जराका कारण नहीं होता है अतः आगमप्रदर्शित अनुष्ठान के लिए तत्त्वोंका ज्ञाता होनेकी परम आवश्यकता है-यों ही तोतारटन्तके रूपमें वह न होना चाहिए। ऐसा कोरा अनुष्ठान प्रायः भावशून्य होता है और इसलिए अनुष्टानके सम्यक फलको नहीं फलता । इसी बातको कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें 'यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः' इस वाक्यके द्वारा प्रदर्शित किया है। ऐसी भावशून्य क्रियाओंको बकरीके गले में लटकते हुए स्तनों (थनों ) की उपमा दी गयी है, जो देखने में स्तनाकार होते हुए भी स्तनोंका काम नहीं देते-दूध उनसे नहीं निकलता। भावशून्य क्रियाएँ भी देखने में अच्छी भली ठीक जान पड़ती हैं परन्तु उनसे फलकी प्राप्ति नहीं होती। इसीसे भावहीनकी पूजादिक, तप, दान, जपादिक और दीक्षादिकको व्यर्थ बतलाया गया है: भावहीनस्य पूजादिः तपोदान-जपादिकम् । व्यर्थं दीक्षादिकं च स्यादजाकण्ठे स्तनाविव ॥ अज्ञानी-ज्ञानीके विषय-सेवनका फल अज्ञानी बध्यते यत्र सेव्यमानेऽक्षगोचरे । तत्र व मुच्यते ज्ञानी पश्यताश्चयमीदृशम् ॥१८॥ 'इन्द्रिय विषयके सेवन करनेपर जहाँ अज्ञानी कर्मबन्धको प्राप्त होता है वहाँ ज्ञानी कर्मबन्धनसे छूटता है-कर्मकी निर्जरा करता है-इस आश्चर्यको देखो !' ___व्याख्या-पिछले पद्यमें साधुके लिए 'ज्ञाततत्त्व' होनेकी जो बात कही गयी है उसके महत्त्वकी इस पद्यमें आश्चर्य के साथ यह कहकर सूचना की गयी कि अज्ञानी जिस कामको करता हुआ कर्म-बन्धनसे बँधता है उसी कामको करता हुआ ज्ञानी कर्म-बन्धनसे छूटता हैकर्सकी निर्जरा करता है। इसमें 'ज्ञायक' और 'वेदक' के भेदकी वह दृष्टि समायी हुई है जिसका वर्णन ग्रन्थमें अन्यत्र' (चौथे अधिकार में ) किया गया है । कर्मफलको भोगते हुए किसके बन्ध और किसके निर्जरा शुभाशुभ-विकल्पेन कर्मायाति शुभाशुभम् । भुज्यमानेऽखिले द्रव्ये निर्विकल्पस्य निर्जरा ॥१९॥ १. ज्ञानिना सकलं द्रव्यं ज्ञायते वेद्यते न च । अज्ञानिना पुनः सर्व वेद्यते ज्ञायते न च ॥२३॥ यथा वस्तुपरिज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिभिरुच्यते । राग-द्वेष-मद-क्रोधः सहितं वेदनं पुनः ॥२४॥ बन्धाधिकार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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