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________________ पद्य ५३-५८ ] संवराधिकार ११३ 'कोई द्रव्यसे भोक्ता है भावसे अभोक्ता है, दूसरा भावसे भोक्ता है द्रव्यसे अभोक्ता है।' । व्याख्या--जो किसी पदार्थ के भोगमें प्रवृत्त है उसे 'भोजक' और जो भोगसे निवृत्त है उसे 'अभोजक' कहते हैं। यहाँ द्रव्य तथा भावसे भोजक-अभोजककी व्यवस्था करते हुए यह सूचित किया है कि जो द्रव्यसे भोजक है वह भावसे भो भोजक हो अथवा जो भावसे भोजक है वह द्रव्यसे भी भोजक हो ऐसा कोई नियम नहीं है-एक द्रव्यसे भोजक होते हुए भी भावसे भोजक नहीं होता और दूसरा भावसे भोजक होते हुए भी द्रव्यसे भोजक नहीं होता। द्रव्य-भावसे निवृत्तोंमें कौन किसके द्वारा पूज्य द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभिः । भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः ॥५६॥ 'जो द्रव्यसे निवृत्त है-अभोजक है-वह व्यवहारियोंके द्वारा पूज्य है। जो भावसे निवृत्त है-अभोक्ता है-वह मुमुक्षुओंके द्वारा पूज्य-पूजाको प्राप्त होता है।' ___ व्याख्या-जो द्रव्यसे--बाह्य पदार्थोंका त्याग करके उनके भोगसे-निवृत्त होता है वह व्यवहारी जीवोंके द्वारा पूजा जाता है; क्योंकि व्यवहारी जीवोंकी बाह्य दृष्टि होती है वे दूसरेके अन्तरंगको नहीं परख पाते । और जो भावसे-वस्तुतः भोगसे विरक्तचित्त होकरनिवृत्त होता है वह मोक्ष-प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंके द्वारा पूजा जाता है; क्योंकि मुमुक्षु अन्तरात्माओंकी आन्तरिक दृष्टि होनेके कारण वे दूसरेके अन्तरंगको परख लेते हैं। भावसे निवृत्त हो वास्तविक संवरका अधिकारी द्रव्य मात्रनिवृत्तस्य नास्ति नितिरेनसाम् । भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी संवृतिः पुनः ॥५७।। _ 'जो द्रव्य मात्रसे निवृत्त है उसके कर्मोंकी निर्वृति नहीं होती और जो भावसे निवृत्त है उसके वास्तविक संवृति-कर्मास्रवकी निवृत्ति-बनती है।' व्याख्या-यहाँ पिछले कथनको संवर तत्त्वके साथ सम्बद्ध करते हुए लिखा है कि जो द्रव्य मात्रसे निवृत्त है-बाह्यमें किसी वस्तुके भोगका त्याग किये हुए है-परन्तु अन्तरंगमें उसके भोगकी लालसा बनी हुई है, उसके कर्मोंका संवर नहीं होता। और जो भावसे निवृत्त है-हृदयमें उस पदार्थ के भोगका कभी विचार तक भी नहीं लाता-उसके वास्तविक संवृति बनती है। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि जो भावसे त्याग है वही कल्याणकारी है। लोक दिखावेके रूपमें जो भी त्यागवृत्ति है वह कल्याणकारिणी नहीं। भावसे निवृत्त होनेको विशेष प्रेरणा विज्ञायेति निराकृत्य निवृत्तिं द्रव्यतस्त्रिधा। भाव्यं भाव-निवृत्तेन समस्तैनोनिषिद्धये ॥५८॥ 'इस प्रकार द्रव्य-भावरूप निवृत्तिको जानकर और द्रव्यनिवृत्तिको मन-वचन-कायसे छोड़कर--गौण करके--समस्त कर्मोको दूर करनेके लिए त्रियोगपूर्वक भावसे निवृत्त होना चाहिए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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