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यागसार- प्राभृत
स्वास्त्रिसे भ्रष्ट कौन ?
यतः संपद्यते पुण्यं पापं वा परिणामतः । वर्तमानो यत ( ततस्तत्र
भ्रष्टोऽस्ति स्वचरित्रतः ||३२||
'चूंकि शुभ-अशुभ परिणाम (भाव) से पुण्य पापकी उत्पत्ति होती है अतः उस परिणाममें प्रवर्तमान आत्मा अपने चारित्रसे भ्रष्ट होता है ।'
व्याख्या - पिछले पद्म में जीवके जिन दो भावों- परिणामोंका उल्लेख है वे क्रमशः राग-द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले शुभ-अशुभ भाव हैं। इनमें से शुभभावोंसे पुण्यकर्मका और अशुभ भावोंसे पापकर्म का आस्रव होता है; जैसा कि मोक्षशास्त्र के 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' इस सूत्र से भी प्रकट है । इस पुण्य पापमें जो सदा प्रवृत्तिमान रहता है उसे यहाँ स्वचारित्रसे भ्रष्ट बतलाया है - वह इन दोनोंके चक्कर में फँसा अपने स्वरूपसे विमुख हुआ उसे भुलाये रहता है।
[ अधिकार ३
स्वचारित्र से भ्रष्ट चतुर्गतिके दुःख सहते हैं।
वाघ - तिर्यङ-नर-स्वर्गि-गतिं जाताः शरीरिणः । शारीरं मानसं दुःखं सहन्ते कर्म- संभवम् ||३३||
' (अपने चारित्र से भ्रष्ट होकर शुभ-अशुभ परिणामोंके द्वारा पुण्य-पापका संचय करनेवाले) नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगतिको प्राप्त हुए जीव कर्मजन्य शारीरिक तथा मानसिक दुःखको सहन करते हैं ।'
व्याख्या -- यहाँ स्वचारित्र से भ्रष्ट होनेके फलका निर्देश किया है-लिखा है कि ऐसे स्वचारित्रभ्रष्ट प्राणी नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगतिको प्राप्त हुए कर्मजनित शारीरिक तथा मानसिक दुःखको सहते हैं ।
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देवेन्द्रों का विषय-सुख भी दुःख
यत्सुखं सुरराजानां जायते विषयोद्भवम् । ददानं दाहिकां तृष्णां दुःखं तदवबुध्यताम् ।
॥३४॥
' ( यदि यह पूछा जाय कि देवगतिको प्राप्त देवेन्द्रोंको बहुत सुख होता है फिर देवगतिके सभी जीवोंको दुःख सहनेवाला क्यों लिखा है ? तो इसका समाधान यह है कि ) देवेन्द्रको इन्द्रिय-विषयोंसे उत्पन्न जो सुख होता है वह दाह उत्पन्न करनेवाली तृष्णाको देनेवाला है इसलिए उसे (वस्तुतः) दुःख समझना चाहिए ।'
व्याख्या - पिछले पद्य में जिन चतुर्गति-सम्बन्धी शारीरिक तथा मानसिक दुःखोंके सहनेका उल्लेख है उसपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पुण्यकर्मसे जो देवगतिकी प्राप्ति होती है उसमें देवेन्द्रका सुख तो बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है; तब अन्य स्वर्गगति प्राप्त सभी जीवोंको भी दुःखोंके सहने की बात कैसे कहते हैं ? इसीका उत्तर इस पद्य में देते हुए लिखा है कि-'देवराजको स्वर्ग में जो सुख इन्द्रिय-विषयोंसे उत्पन्न हुआ प्राप्त होता है वह दाह
१. मु श्वभ्रतिर्यङ्न र स्वर्गगति ।
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