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________________ पद्य २६-३१ ] आसूवाधिकार एतेऽहमहमेतेषामिति तादात्म्यमात्मनः । विमूढः कल्पयन्नात्मा स्व-परत्वं न बुध्यते ॥ २६॥ 'मूढ आत्मा - मिध्यात्वसहित चित्त-राग-द्वेष- ईर्षा-लोभ-मोह-मदादिकमें तथा इन्द्रियकर्म- नोकर्म-रूप-रस- स्पर्शादिक-विषयोंमें 'ये मैं हूँ, मैं इनका हूँ' इस प्रकार आत्माके तादात्म्यकी - एकत्वकी - कल्पना करता हुआ स्व-पर-विवेकको - अपने और परके यथार्थ बोधको—प्राप्त नहीं होता ।' व्याख्या - पिछले पद्य में स्व-परकी नासमझका जो उल्लेख है उसे इस पद्य में और स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि 'राग-द्वेष- मोह - क्रोध-लोभ-मद-मत्सर आदि के रूपमें जो भी विभाव हैं, इन्द्रियोंके कर्म हैं, शरीरकी चेष्टाएँ हैं और रूप-रस- स्पर्शादिरूप पुद्गलके गुण हैं उन सबमें 'ये मेरे, मैं इनका' इत्यादि रूपसे तादात्म्य-सम्बन्धकी कल्पना करता हुआ यह मूढआत्मा न तो अपनेको ही समझ पाता है और न परको । यह तादात्म्य भावकी कल्पना ही इस जीव के स्व-पर-विवेकमें बाधक है । इसीसे अनात्मीय-भावों में ममकार और कर्मजनितभावों में अहंकार उत्पन्न होता है । कर्म-सन्तति हेतु अचारित्रका स्वरूप हिंसने वितथे स्तेये मैथुने च परिग्रहे । मनोवृत्तिरचारित्रं कारणं कर्म संततेः ||३०|| ७५ 'हिंसामें, झूठ में, चोरीमें मैथुन में और परिग्रहमें जो मनको प्रवृत्ति है वह अचारित्र हैकुत्सित आचरण है- जोकि कर्मसन्ततिका — कर्मोंकी उत्पत्ति, स्थिति तथा परिपाटीका - कारण है ।' व्याख्या - इस पद्य में आस्रवके दूसरे विशेष कारण अचारित्रको लिया गया है और यह बतलाया है कि हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन ( पंच पापों) में जो भाव मनकी प्रवृत्ति है उसे 'अचारित्र' कहते हैं - जिसके दूसरे नाम 'अव्रत' और 'असंयम' भी हैं । यह प्रवृत्ति आस्रवादिरूपसे कर्म सन्ततिको चलाने में कारणीभूत है । Jain Education International राग-द्वेषसे शुभाशुभ-भावका कर्ता अचारित्री रागत द्वेषतो भावं परद्रव्ये शुभाशुभम् । आत्मा कुर्वन्नचारित्रं स्व चारित्र - पराङ्मुखः ॥ ३१ ॥ 'परद्रव्यमें रागसे अथवा द्वेषसे शुभ-अशुभ भाव (परिणाम) को करता हुआ आत्मा अचारित्री — कुत्सिताचारी होता है; क्योंकि वह उस समय अपने चारित्रसे - स्वरूपाचरणसेविमुख होता है ।' व्याख्या - जब यह जीव परद्रव्यमें रागसे शुभभावको और द्वेपके कारण अशुभभावको करता है - परद्रव्यको शुभ या अशुभरूप मान लेता है तो यह अपने समताभावरूप स्वचारित्रसे विमुख-भ्रष्ट हुआ अचारित्री अथवा असंयमी होता है । और ऐसा होता हुआ कर्मास्रवका कारण बनता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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