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________________ पद्य ७-१२] आसवाधिकार व्याख्या-यहाँ जीवके जिस परिणामका उल्लेख है वह उसका स्वभाव-परिणाम न होकर विभाव-परिणाम है, जो एक तो कर्मोके उदय-निमित्तको पाकर उत्पन्न होता है और दूसरे नये कर्मोके आस्रवका निमित्तकारण बनता है। कर्म और कर्मजनित जीवपरिणाम दोनोंको यहाँ 'दारुण' विशेषणके साथ उल्लेखित किया है, जो दोनोंकी भयंकरता-कठोरताका द्योतक है। किसका किसके साथ कार्य-कारण-भाव कार्य-कारण-भावोऽयं परिणामस्य कर्मणा । कर्म-चेतनयोरेष विद्यते न कदाचन ॥१०॥ 'जीवके परिणामका कर्मके साथ उक्त कार्य-कारण-भाव है, कर्म और चेतन ( जीवात्मा) में यह कार्य-कारणभाव कदाचित् विद्यमान नहीं है।' व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस कार्य-कारण-भावका उल्लेख है उसको स्पष्ट करते हुए यहाँ यह बतलाया गया है कि यह कार्य-कारण-भाव जीवके विभावपरिणामका कर्मके साथ है, अचेतन कर्म और चेतन जीवमें यह कार्य-कारण-साव कदाचित् भी नहीं है-अचेतन कर्मसे सचेतन जीवकी और सचेतन-जीवसे अचेतन-कर्मकी उत्पत्ति कभी नहीं होती। कर्मको जीवका कर्ता माननेपर आपत्ति आत्मानं कुरुते कर्म यदि, कर्म तदा कथम् । चेतनाय फलं दत्ते ? भुक्ते वा चेतनः कथम् ।।११।। 'यदि कर्म (अपने उपादानसे) आत्माको करता है तो फिर कर्म चेतन-आत्माको फल कैसे देता है ? और चेतनात्मा उस फलको कैसे भोगता है ?-ये दोनों बातें तब बनतीं नहीं।' व्याख्या-पिछले पद्यमें यह बतलाया गया है कि सचेतन जीव और अचेतन द्रव्य कर्ममें परस्पर कार्य-कारण भाव नहीं है । यदि दोनोंमें कार्य-कारण भाव माना जाय-जीवको अपने उपादानसे कर्मका और कर्मको अपने उपादानसे जीवका कर्ता माना जाय तो इन दोनों ही विकल्पोंमें यह प्रश्न पैदा होता है कि कर्म जीवको फल कैसे देता है और जीव उस फलको कैसे भोगता है ? उपादानकी दृष्टिले दोनोंके एक होनेपर फलदाता और फलभोक्ताकी बात नहीं बनती। इनमें से एक विकल्पका उल्लेख करके यहाँ जो आपत्ति की गयी है वही दूसरे विकल्पका उल्लेख करके ग्रन्थके द्वितीय अधिकारमें पद्य नं०४८ के द्वारा की गयी है। एकके किये हए कर्मके फलको दूसरेके भोगनेपर आपत्ति परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते । न कोऽपि सुख-दुःखेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ॥१२॥ 'परके किये हुए कर्मको-कर्मके फलको-यदि दूसरा भोगता है तो फिर कोई भी सुखदुःखसे कैसे मुक्त हो सकता है ? नहीं हो सकता।' व्याख्या-यहाँ 'करे कोई और भरे कोई के सिद्धान्तका उल्लेख करके उसे दूषित ठहराया गया है-लिखा है कि यदि एकके किये हुए कर्मका फल दूसरा भोगता है तो कोई भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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