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________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ३ हूँगा' यह मिथ्यादृष्टि जीवकी जो बुद्धि है वह कर्मों के आगमनकी-आत्मप्रवेशकी-कारणीभूत है-ऐसी बुद्धिके निमित्तसे भी कर्मोका आम्रप होता है। चौथी बुद्धि जिससे कर्मास्रव नहीं रुकता चेतनेऽचेतने द्रव्ये यावदन्यत्र वर्तते । स्वकीयबुद्धितस्तावत्कर्मागच्छन् न वार्यते ।।७।। 'जबतक यह जीव चेतन या अचेतन किसी पर-पदार्थमें स्वकीय बुद्धिसे वर्तता है-परपदार्थको अपना मानता है तबतक कर्मोका आना ( आत्मप्रवेश) रोका नहीं जाता।' व्याख्या—पिछले पद्यमें जिस देहादि वस्तुके स्वामित्वका उल्लेख है वह स्वदेहादिक है और इस पद्यमें जिस वस्तु के स्वामित्वका उल्लेख है वह परदेहादिक है जिसे 'अन्यत्र' शब्दके प्रयोग-द्वारा यहाँ व्यक्त किया गया है। और इसीलिए परके-स्त्री-पुत्रादिके शरीरादिकमें जो अपने स्वामित्वकी बुद्धि है वह एक चौथे प्रकारकी बुद्धि है। इस बुद्धिसे जबतक जीव प्रवर्तता है तबतक कर्म के आगमनको नहीं रोका जा सकता। निश्चय और व्यवहारसे आत्माका कर्तृत्व शुभाशुभस्य भावस्य कर्तात्मीयस्य वस्तुतः कर्तात्मा पुनरन्यस्य भावस्य व्यवहारतः ।।८|| 'आत्मा निश्चयसे अपने शुभ तथा अशुभ भावका-परिणामका–कर्ता है और व्यवहारसे परके-पुद्गल द्रव्यके-भावका–परिणामका-कर्ता है।' । व्याख्या-यहाँ निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंकी दृष्टिसे इस संसारी जीवके कर्तृत्वका निर्देश किया गया है और उसमें बतलाया है कि यह जीव निश्चयसे अपने शुभअशुभ भावोंका कर्ता है, जो कि कर्मोके उदय-निमित्तवश उसके विभाव-परिणाम होते हैं, और व्यवहारसे परद्रव्य-पुद्गलके शुभ-अशुभ परिणामका कर्ता है, जो कि आत्माके शुभअशुभ परिणामोंका निमित्त पाकर कर्मरूपमें परिणत होनेवाला उसका विभावपरिणाम है। जीव-परिणामाश्रित कर्मास्रव, कर्मोदयाश्रित जीव- रिणाम श्रित्वा जीव-परीणामं कर्मास्रवति दारुणम् । श्रित्वोदेति परीणामो दारुणः कर्म दारुणम् ।।९।। __ 'जीवके परिणामको आश्रित करके-आत्माके शुभ-अशुभ भावका निमित्त पाकररारुणकर्म आस्रवको प्राप्त होता है-आत्मामें प्रवेश पाता है-(और) दारुणकर्मको आश्रित करके-दारुणकर्मके उदयका निमित्त पाकर-दारुणपरिणाम उदयको प्राप्त होता हैआत्मामें शुभ या अशुभरूप दारुणभावका उदय होता है । १. मुकर्मोद्गच्छन् । २. यहाँ 'वस्तुतः' की जगह 'बन्धतः' पाठ पाया जाता है, जो समुचित प्रतीत नहीं होता। उत्तरार्धमें 'व्यवहारतः' पदका प्रयोग यहाँ उसके प्रतिपक्षी 'वस्तुतः' पदके अस्तित्वको सूचित करता है, इसीसे उसको यहाँ रखा गया है। ३. मु दारुणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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