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________________ ६४ [ मूलाचारे अक्खोमक्खणमेत्तं भुजंति मुणी पाणधारणणिमित्त । पाणं धम्मणिमित्तं धम्म पि चरंति मोक्ख? ॥१७॥ अक्षम्रक्षणमात्रं यथा शकटं धुरालेपनमंतरेण न वहत्येवं शरीरमप्यशनमात्रेण विना न संवहतीति मुनयःप्राणधारणनिमित्तं किचिन्मात्र भंजते, प्राणधारणं च धर्मनिमित्तं कुर्वति, धर्ममपि चरंति मोक्षार्थ मक्तिनिमित्तमिति ॥१७॥ लाभालाभविषये समत्वमाह लद्धण होति तुट्ठाण वि य अलद्धेण दुम्मणा होति। दुक्खे सुहे य मुणिणो मज्झत्थमणाउला होंति ॥८१८॥ भिक्षाया लाभे आहारादिसंप्राप्ती न भवंति संतुष्टा: संतोषपरिगता' जिह्वन्द्रियवशंगता अद्य' लब्धा भिक्षेति न हर्ष विदधति स्वचित्ते न चाप्यलब्धे भिक्षाया अलाभेऽसंप्राप्तो सत्यां दुर्मनसो विमनस्का न भवंति 'अस्माभि राहारादिकमद्य न लब्धमिति दीनमनसो न भवंति' दुःखे संजाते सुखे च समुद्भूते मुनयो मध्यस्थाः समभावा अनाकुलाश्च भवंतीति ।।१८।। चर्यायां मुनीनां स्थैर्य निरूपयन्नाह गाथार्थ-मुनि धुरे में ओंगन देने मात्र के सदृश, प्राणों के धारण हेतु आहार करते हैं-प्राणों को धर्म के लिए और धर्म को भी मोक्ष के लिए आचरते हैं ।।८१७॥ आचारवृत्ति-जैसे गाड़ी की धुरी में लेपन-ओंगन दिये बिना गाड़ी नहीं चलती है उसी प्रकार से यह शरीर भी अशनमात्र के बिना नहीं चल सकता है और मोक्षमार्ग में रत्नत्रय भार को नहीं ढो सकता है। इसलिए मुनि प्राणों को धारण करने के लिए किंचित् मात्र आहार ग्रहण करते हैं और धर्म के लिए आचरण करते हैं । इस प्रकार से मुनियों की आहार क्रिया अक्षम्रक्षणवृत्ति कहलाती है। लाभ-अलाभ के विषय में समभाव को बताते हैं गाथार्थ-आहार आदि मिल जाने पर सन्तुष्ट नहीं होते हैं और नहीं मिलने पर भी सम्मनस्क नहीं होते हैं, वे मुनि दुःख और सुख में आकुलतारहित मध्यस्थ रहते हैं ॥१८॥ प्राचारवत्ति-आहार आदि की प्राप्ति हो जाने पर वे सन्तुष्ट नहीं होते हैं। अर्थात् जिहन्द्रिय के वश में होकर 'आज मुझे आहार मिल गया' इस प्रकार से अपने मन में हर्षित नहीं होते हैं और आहार के नहीं मिलने पर खेदखिन्न नहीं होते हैं, अर्थात् 'मुझे आज आहार आदि नहीं मिला' ऐसा दीनमन नहीं करते हैं। दुःख के आ जाने पर अथवा सुख के उत्पन्न होने पर वे आकुलचित्त न होते हुए समभाव धारण करते हैं। चर्या में मुनियों के स्थैर्य का निरूपण करते हैं-- १. क संतोषपराः। २. पुष्पिकान्तर्गतः पाठः 'द' 'क' प्रतौ नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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