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________________ अगर भावनाधिकारः ] [" प्रेतं अनुज्ञातं' गृहस्थैर्यंतय आगमिष्यंति भिक्षार्थं स्वेन चावग्रहादिरूपेण मया तत्र गंतव्यं नानुमतं, भिक्षां चतुर्विधाहारं, नीचोच्चमध्यमकुलेषु दरिद्रेश्वरसमानगृहिषु' गृहपंक्त्या हिंडंति पर्यटंति, मौनेन मुनयः समाददते भिक्षां गृह्णतीति ॥५१५॥ तथा रसनेंद्रियजयमाह - सीदलमसीदलं वा सुक्कं लुक्खं सिद्धि सुद्ध ं वा । लोणदमलो णिदं वा भुंजंति मुणी प्रणासावं ॥ ८१६॥ शीतलं पूर्वाह्नवेलायां कृतं परित्यक्तोष्णभावं भोज्यं, अशीतलं तत्क्षणादेवावतीर्णमपरित्यक्तोष्णभावमोदनादिकं, रूक्षं घृततलादिरहितं कोद्रवमकुष्टादिकं वा, शुष्कं दुग्धदधिष्यंजनादिरहितं, स्निधं बुतादिसहितं शाल्योदनादिकं शुद्धं पिठरादवतीर्णरूपं न च मनागपि विकृतं लवणयुक्तं अलवणं वा भुंजते मुनयोऽनास्वादं यथा भवति जिह्वास्वादरहितमिति ॥ ८१६ । । यमनार्थपदस्यार्थं निरूपयन्नाह- है उनका आहार 'अज्ञात' है, तथा 'आज मुझे उसके यहाँ आहार हेतु जाना है' इस प्रकार से मुनि ने स्वयं उसे अनुमति नहीं दी है और न ऐसा उनका अभिप्राय है वह आहार 'अनुज्ञात' अथवा 'अननुज्ञात" है । अर्थात् 'यति भिक्षा के लिए आयेंगे और मुझे अवग्रह - वृतपरिसंख्यान आदि के नियम से वहाँ जाना चाहिए' इस प्रकार से अनुमति नहीं दी है। ऐसा आहार मुनि मौनपूर्वक ग्रहण करते हैं। तथा आहार काल में दरिद्र या सम्पन्न में समान मान से, गृहपंक्ति से भ्रमण करते हैं और मौनपूर्वक निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं । रसना इन्द्रिय के जय को कहते हैं गाथार्थ - ठण्डा हो या गरम, सूखा हो या रूखा, चिकनाई सहित हो या रहित, लवण सहित हो या रहित - ऐसे स्वादरहित आहार को मुनि ग्रहण करते हैं ॥ ८१६|| श्राचारवृत्ति - शीतल - पूर्वान्ह बेला में बनाया गया होने से जो उष्णपने से रहित हो चुका है ऐसा भोज्य पदार्थ, अशोतल उसी क्षण ही उतारा हुआ होने से जो गरम-गरम है ऐसे भात आदि पदार्थ, रूक्ष- - घी, तेल, आदि से रहित अथवा कोदों व मकुष्ट अन्न विशेष आदि पदार्थ, शुष्क - दूध, दही व्यंजन अर्थात् साग, चटनी आदि से रहित, स्निग्ध-घृत बादि सहित, शालिधान का भात आदि, शुद्ध-चूल्हे से उतारा गया, मात्र जिसमें किंचित् भी कुछ डाला नहीं गया है, नमक सहित भोजन या नमक रहित पदार्थ, ऐसे भोजन को मुनि जिह्वा का स्वाद न लेते हुए ग्रहण करते हैं । अर्थात् ठण्डे - गरम आदि प्रकार के आहार में राग-द्वेष न करते हुए समता भाव से स्वाद की तरफ लक्ष्य न देते हुए मुनि आहार लेते हैं । 'यमनार्थ' पद का अर्थ स्पष्ट करते हैं Jain Education International १. ग अजनुज्ञातं चानुमतं । २. 'अननुज्ञातं' पाठ टिप्पणी में है । ये दोनों पाठ संगत प्रतीत होने से ऐसा अर्थ किया है। ३. गृहेषु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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