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अनगार भावनाधिकार: ]
वि ते अभित्युति य पिंडत्थं ण वि य किंचि जायंति । htraar मुणिणो चरंति भिक्वं प्रभासंता ॥ ८१६ ॥
नापि ते मुनयोऽभिष्टुवन्ति नैवोपश्लोकादिभिः स्तुति कुर्वति पिंडार्थं ग्रासनिमित्तं नैवापि च किंचित् याचंते न चापि प्रार्थयंते द्रव्यादिकमाहाराय मौनव्रतेन तोषमादाय मुनयश्चरंति भिक्षार्थमाहारार्थं पर्यटति, अभाषतः खात्कारघंटिकादिसंज्ञां वा न कुर्वतीति न पौनरुक्त्यमिति ॥ ६१६ ॥
तथा
देहित्ति दी कसं भासं णेच्छति एरिसं वोत्तुं । अवि णीदि अलाभेणं ण य मोणं भंजदे धीरा ॥ ८२० ॥
[ ६५
देहीति मम ग्रासमात्रं दध्वं यूयमिति दीनां करुणां च भाषां नेच्छति । ईदृशों वक्त सुष्ठु अहं बुभुक्षितो मम पंच सप्त वा दिनानि वर्तते भोजनमंतरेणेति वचनं दीनं यदि मह्यं भोजनं' न प्रयच्छत तदा मृतोऽहं शरीरस्य मम सुष्ठु कृशता रोगादिभिर्ग्रस्तोऽहं नास्माकं किंचिद्विद्यते याचनादिपूर्वकं वचनं करुणोपेतमिति, अपि निवर्त्ततेऽलाभे वा लाभे संजाते निवर्त्तते भिक्षागृहेषु न पुनः प्रविशति न च मौनं भजंति न किचिदपि प्रार्थयते भोजनाय धीराः सत्वसंपन्ना इति ॥ ५२०||
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गाथार्थ - भोजन के लिए किसी की स्तुति नहीं करते हैं और न कुछ भी याचना करते हैं । वे मुनि बिना बोले मौनव्रतपूर्वक भिक्षा ग्रहण करते हैं ।। ६१६ ||
श्राचारवृत्ति - ग्रास के निमित्त वे मुनि श्लोक आदि के द्वारा किसी की स्तुति नहीं करते हैं, और आहार के लिए वे किंचित् भी द्रव्य आदि की याचना भी नहीं करते हैं । वे सन्तोष से मौनपूर्वक आहार के लिए पर्यटन करते हैं । किन्तु मौन में खखार, हुंकार आदि संकेत को भी नहीं करते हैं । इस कथन से यहाँ मौनपूर्वक और 'नहीं बोलना' इन दो प्रकार के कथनों में पुनरुक्त दोष नहीं है । अर्थात् मौन व्रत से किसी से वार्तालाप नहीं करना - कुछ नहीं बोलनाऐसा अभिप्राय है और 'अभाषयन्तः से खखार, हुँ, हाँ, ताली बजाना आदि अव्यक्त शब्दों का संकेत वर्जित है । ऐसा समझना ।
उसी प्रकार से और भी कहते हैं
गाथार्थ - 'दे दो' इस प्रकार से दीनता से कलुषित ऐसा वचन नहीं बोलना चाहते हैं, आहार के न मिलने पर वापस आ जाते हैं; किन्तु वे धीर मौन का भंग नहीं करते हैं ||८२० ॥ आचारवृत्ति - 'तुम मुझे ग्रासमात्र भोजन दे दो' इस प्रकार से दीन और करुण वचन नहीं बोलते हैं । 'मैं बहुत ही भूखा हूँ, भोजन के बिना मुझे पाँच या सात दिन हो गये हैं, ऐसे वचन दीन कहलाते हैं । तथा यदि आप मुझे भोजन नहीं देंगे तो मैं मर जाऊँगा, मेरे शरीर में बहुत कमजोरी आ गई है, मैं रोगादि से पीड़ित हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है', इत्यादि रूप याचना के वचन करुणा से सहित वचन हैं। मुनिराज ऐसे दीन व करुणार्द्र वचन नहीं बोलते हैं । भिक्षा का लाभ नहीं होने पर वे वापस आ जाते हैं । अथवा भिक्षा मिल जाने पर आहार ग्रहण कर वापस आ जाते हैं, पुनः भिक्षा के लिए घरों में प्रवेश नहीं करते हैं । न मौन भंग करते हैं और न वे भोजन के लिए कुछ भी प्रार्थना ही करते हैं । ऐसे साधुधीर - सत्त्वगुण सम्पन्न होते हैं ।
१. क० भोज्यमन्नं
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