________________
अनगारभावनाधिकार]
[ ५७
सपर्ययं ज्ञानोद्योतेन सुष्ठु ज्ञात्वाऽवबुध्य ततः परिहरंति परित्यजन्ति सावधं यत्किचित्सर्वदोषजातं सर्वथा परिहरंतीति ।।८०॥ सावद्यकारणमपि परिहरतीत्याह
सावज्जकरणजोग्गं सव्वं तिविहेण तियरणविसुद्धं ।
वज्जंति वज्जभीरू जावज्जीवाय णिग्गंथा ॥८०२॥ सावधानि सदोषानि यानि करणानीन्द्रियाणि परिणामाः क्रिया वा तैर्योगः संपर्कस्तं सावद्यकरण - योगं सर्वमपि त्रिविधेन त्रिप्रकारेण कृतकारितानुमतरूपेण त्रिकरणविशुद्ध यथा भवति मनोवचनकायक्रियाशुद्ध यथा भवति तथा वर्जयंति परिहरंत्यवद्यभीरवः पापभीरवो यावज्जीवं यावन्मरणांतं निग्रंथाः परिहरतीति ॥८०२॥ कि तत्सावद्य यन्न कुर्वन्तीत्याशंकायामाह
तणरुक्खहरिदछेदणतयपत्तपवालकंदमूलाई।
फलपुप्फबीयघादं ण करेंति मुणो ण कारेंति ।। ८०३ ।। तृणच्छेदं, वृक्षच्छेदं, हरितच्छेदनं छिन्नछेदनं च न कुर्वति न कारयंति मुनयः, तथा त्वक्पत्रप्रवासकन्दमूनानि न छिदंति न छेदयंति, तथा फलपुष्पबीजघातनं न कुवंति न कारयंति मुनयः ।।८०३।। पर्यायों को ज्ञान-उद्योत के द्वारा अच्छी तरह जानकर पुन: जो कुछ भी सावद्यरूप दोषों का समह है उन सबका सर्वथा त्याग कर देते हैं।
सावध के कारणों का भी त्यागकर देते हैं, सो ही बताते हैं
गाथार्थ–सावध इन्द्रियों के योग से त्रिविध त्रिकरणविशुद्ध सर्व का वे पापभीरू निग्रंथ मुनि त्याग कर देते हैं । ॥ ८०२॥
प्राचारवृत्ति-सावद्य-सदोष जो करण-इन्द्रियाँ या परिणाम अथवा क्रिया उनका योग सम्पर्क 'सावधकरण योग' है । इन सर्व सदोष क्रिया आदि को जो कृत कारित अनुमोदना रूप से मन-वचन-काय की क्रिया से विशुद्ध जैसे हो वैसे छोड़ देते हैं। अर्थात् पापभीरू निग्रंथ मुनि मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना पूर्वक सदोष क्रियाओं को जीवनपर्यंत के लिए छोड़ देते हैं।
वह सावध क्या है कि जिसको वे नहीं करते हैं ? सो ही बताते हैं
माथार्थ-तृण, वृक्ष, हरित वनस्पति का छेदन तथा छाल, पत्ते, कोंपल, कन्द-मूल तथा फल, पुष्प और बीज इनका घात मुनि न स्वयं करते हैं और न कराते हैं । ॥ ८०३ ॥
प्राचारवृत्ति-वे मुनि तृण का छेदन, वृक्ष का छेदन, हरित का छेदन और छिन्नभिन्न हुई वनस्पति का छेदन न स्वयं ही करते हैं और न दूसरों से कराते हैं। तथा छाल, पत्ते, कोंपल, कन्द-मूल का भी छेदन न करते हैं न कराते हैं। उसी प्रकार से फल, पुष्प और बीज का घात भी न करते हैं, न ही कराते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org