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________________ ५८] [ मूलाचारे तथा पुढवीय समारंभं जलपवणग्गीतसाणमारंभं । ण करेंति ण कारेंति य कारेंतं णाणुमोदंति ॥ ८०४ ।। पृथिव्याः समारंभं खननोत्कीर्णनचूर्णनादिकं न कुर्वति न कारयति कुर्वतं नानुमन्यन्ते धीरास्तथा जलपवनाग्नित्रसानामारंभे सेचनोत्कर्षणबीजमज्वालनमर्दनत्रासनादिकं न कुर्वति न कारयंति नानुमन्यंत इति ॥८०४॥ यत: णिक्खित्तसत्थदंडा समणा सम सव्वपाणभूदेसु । अप्पढें चितंता हवंति अव्वावडा साहू ॥ ८०५॥ निक्षिप्तशस्त्रदंडाः सर्वहिंसाकारणोपकरणमुक्ता यतः, श्रमणा यतश्च, सर्वप्राणभूतेषु समाः समाना: यतश्चात्मार्थ चितयतो भवत्यम्यापता र पाररहितास्ततस्ते न कस्यचित्कदाचित्पीडां कर्वतीति ॥१०॥ विहरंतः कथंभूतं परिणामं कुर्वतीत्याशंकायामाह उवसंतादीणमणा उवक्खसीला हवंति मज्झत्था । णिहुदा अलोलमसठा अबिझिया कामभोगेसु ॥८०६।। उपशांता अकषायोपयुक्ताः, अदीनमन गो दैन्यविरहिताः, पथश्रमक्षुत्पिपासाज्वरादिपरीषहैरग्लान उसी प्रकार से और भी बताते हैं--- गाथार्थ-वे मुनि पृथ्वी का समारम्भ, जल, वायु, अग्नि और त्रसजीवों का आरम्भ न स्वयं करते हैं न कराते हैं और न करते हुए को अनुमोदना ही देते हैं । ॥ ८०४ ॥ प्राचारवृत्ति-पृथ्वी का खोदना, उसमें कुछ उत्कीर्ण करना, उसका चूर्ण आदि करना सब समारम्भ कहलाता है। ऐसे ही जल का सिंचन करना, फेंकना, हवा का बीजन करना अर्थात् पंखे से हवा करना, अग्नि को जलाना, त्रसजीवों का मर्दन करना-उन्हें त्रास आदि देना, इन क्रियाओं को धीर मुनि न करते हैं न कराते हैं और करते हुए को न अनुमति ही देते हैं। क्योंकि गाथार्थ-वे श्रमण शस्त्र और दण्ड से रहित हैं, सर्व प्राणी और भूतों में समभावी हैं। आत्मा के हित का चितवन करते हुए वे साधु इन व्यापारों से रहित होते हैं ।।। ८०५॥ प्राचारवृत्ति-वे श्रमण सर्व हिंसा के कारणभूत उपकरणों से रहित हैं। सर्व प्राण और भूत अर्थात् द्वीन्द्रिय आदि जीव तथा पृथ्वी आदि भूतों में समान भाव रखने वाले हैं । अपनी आत्मा के व्यापार से रहित हैं। इसीलिए वे साधु कभी भी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते हैं। वे विहार करते हुए किस प्रकार के परिणाम करते हैं ? सो ही बताते हैं। गाथार्थ-वे उपशान्त भावी दीन मन से रहित, उपेक्षा स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, निर्लोभी, मुर्खता रहित और कामभोगों में विस्मय रहित होते हैं । ॥८०६।। प्राचारवृत्ति-वे मुनि अकषाय भाव से युक्त रहते हैं, दैन्य वृत्ति से रहित होते हैं । मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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