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[ मूलाचारे '
मुक्ताः सर्वसंगरहिताः, निरपेक्षाः किंचिदप्यनीहमानाः, स्वच्छन्दविहारिणः स्वतंत्रा यथा वातो वात इव नगराकरमंडितायां वसुधायां पृथिव्यां हिण्डते भ्रमंतीति ॥७६६
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ननु विहरतां कथं नेर्यापथकर्मबन्ध इत्याशंकायामाह -
वसुधम्मि वि विहरंता पड ण करेंति कस्सह कयाई । जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ॥ ८०० ॥
वसुधायां विहरतोऽपि पृथिव्यां पर्यटतोऽपि पीडां व्यथां न कुर्वंति नोत्पादयंति कस्यचिज्जीवविशेषस्य कदाचिदपि जीवदयायां' प्रवृत्ताः, यथा माता जननी पुत्रपुत्रीषु दयां विदधाति तथैव तेऽपि न कुर्वति कस्यापि कदापि पीडामिति ॥ ८०० ॥
ननु नानादेशेषु विहरतां कथं सावद्यपरिहार इत्याशंकायामाह -
जीवाजीवविहति णाणुज्जोएण सुट्टु णाऊण ।
तो परिहरति धीरा सावज्जं जेत्तियं किचि ।। ८०१ ॥
जीवविभक्ति जीवविभेदान् सर्वपर्यायान्, अजीवविभक्ति पुद्गलधर्माधर्माकाशकालस्वरूपं सभेदं
आचारवृत्ति - मुक्त - सर्वसंग से रहित, निरपेक्ष - किंचित् भी इच्छा न रखते हुए वायु के समान स्वतन्त्र हुए नगर और खान से मण्डित इस पृथ्वीमण्डल पर विहार करते हैं । विहार करते हुए मुनि के ईर्यापथजन्य कर्म का बन्ध क्यों नहीं होता ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ - वसुधा पर विहार करते हुए भी कदाचित् किसी को भी पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं । जीवा में दया भाव सहित हैं, जैसे कि पुत्र समह में माता दया रखती है । ।। ८०० ॥
आचारवृत्ति - पृथ्वीतल पर विहार करते हुए भी ये मुनि किसी भी जीव विशेष को कभी भी पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं, वे सदा जीव दया में प्रवृत्त रहते हैं । जैसे जननी पुत्र-पुत्रियों पर दया करती है वैसे ही वे भी कभी भी किसी प्राणी को व्यथा नहीं उपजाते हैं, सर्वत्र दयालु रहते हैं ।
नाना देशों में विहार करते हुए उनके सावद्य का परिहार कैसे होगा ? ऐसी आशंका होने पर बताते हैं
गाथार्थ - जीव और अजीव के विभाग को ज्ञानप्रकाश से अच्छी तरह जानकर पुनः वे धीर मुनि जो कुछ भी सावद्य है उसका परिहार कर देते हैं । ।। ८०१ ॥
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प्राचारवृत्ति - जीवों के अनेक भेदों को और उनकी सर्व पर्यायों को, तथा अजीव के भेदों को अर्थात् पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के स्वरूप को, उनके सर्व भेद और
१. 'जीवदयायामापन्नाः सर्वप्राणिदयापरा यतः यथा माता जननी पुत्रभांडेषु, जननी मथा पुत्रविषयेऽतीव हितमाचरति तथा तेऽपि साधवः सर्वजीवविषयदयायां प्रवृत्ताः, इति ६० क० पुस्तके पाठः ।
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