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अनगारभावनाधिकारः]
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गतशब्दः प्रत्येकमभिसंबंध्यते, पयंकं गताः पर्यऋण स्थिताः, निषद्यां गताः सामान्येनोपविष्टाः, वीरासनं च गता वीराणामासनेन स्थितास्तथैकपार्श्वशायिनस्तथा स्थानेन कायोत्सर्गेण स्थिता उत्कुटिकेन स्थितास्तथा हस्तिशुडमक रमुखाद्यासनेन च स्थिता मुनयः क्षपयंति नयंति गमयंति रात्रि गिरिगुहासु नान्यथेति समाधानताऽनेन प्रकारेण प्रतिपादिता भवतीति ॥७९७॥ प्रतीकाररहितत्वं निष्काङ्क्षत्वं च प्रतिपादयन्नाह
उवधिभरविप्पमुक्का वोसट्टगा णिरंबरा धीरा ।
णिविकरण परिसुद्धा साधू सिद्धि वि मग्गंति ।। ७९८,। उपधिभरविप्रमुक्ताः श्रामण्यायोग्योपकरणभारेण सुष्ठु मुक्ताः, व्युत्सृष्टांगास्त्यक्तशरीराः, निरंबरा माग्न्यमधिगताः, धीरा सुष्ठ शराः, निष्किचना निर्लोभाः, परिशद्धाः कायवाड मनोभिः शुद्धाचरणा: साधवः,
यं समिच्छंति मगयंते. तेनेह लोकाकांक्षा परलोकाकांक्षा च परिषह प्रतीकारश्च न विद्यते तेषामिति ख्यापितं भवति । वसतिशुद्ध्या तपःसूत्रसत्वकत्वधृतिभावनाश्व प्रतिपादिता इति ॥७६८॥ विहारशुद्धि विवृण्वन्नाह
मुत्ता णिराववेक्खा सच्छंदविहारिणो जहा वादो। हिडंति णिरुव्विग्गा जयरायरमंडियं वसुहं ॥ ७६६ ।।
प्राचारवृत्ति-'गत' शब्द का प्रत्येक के साथ अभिसम्बन्ध करना। इससे यह अर्थ हुआ कि वे पर्यकासन से स्थित हुए निषद्या--सामान्य आसन से बैठे हुए, वीरासन से स्थित हुए एक पसवाड़े से लेटे हुए तथा कायोत्सर्ग से स्थित हुए, या उत्कुटिक आसन से स्थित हुए अथवा हस्तिशुण्डासन, मकरमुखासन आदि आसनों को लगाकर स्थित हुए वे मुनि पर्वत की गुफाओं में रात्रि को व्यतीत करते हैं, अन्य प्रकार से नहीं । इस प्रकार से उनको वहाँ समाधानता बनी रहती है ऐसा यहाँ प्रतिपादित किया गया है।
वे प्रतिकार रहित और कांक्षा रहित होते हैं, सो ही बताते हैं
गाथार्थ-उपधि के भार से मुक्त हुए, शरीर संस्कार से रहित, वस्त्ररहित, धीर, अकिंचन, परिशुद्ध साधु सिद्धि को खोज करते रहते हैं । ।। ७६८ ।।
___ आचारवृत्ति-मुनिपने के अयोग्य उपकरण के भार से जो रहित हैं, शरीर के संस्कारों का त्याग कर चुके हैं, नग्न मुद्रा के धारी हैं, अतिशय शूर हैं, निर्लोभी हैं, मन-वचन-काय से शुद्ध आचरणवाले हैं, ऐसे साधु कर्मक्षय की इच्छा करते हैं । इस कथन से उन साधुओं के इह लोक की आकांक्षा, परलोक की आकांक्षा और परीषहों का प्रतिकार नहीं रहता है, ऐसा कहा गया है। इस वसतिशुद्धि के द्वारा तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्व और धृति इन भावनाओं का भी प्रतिपादन किया गया है, ऐसा समझना। यहाँ तक वसतिशुद्धि का वर्णन हुआ।
विहारशुद्धि का वर्णन करते हैं
गाथार्थ-परिग्रह रहित निरपेक्ष स्वच्छन्द विहारी वायु के समान नगर और आकर से मण्डित पथ्वीतल पर उद्विग्न न होते हुए भ्रमण करते हैं । ॥७६६ ।।
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