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________________ जनगारभावनाधिकार: एयाइणो अविहला वसंति गिरिकंदरेसु सप्पुरिसा । धीरा प्रदीणमणसा रममाणा वीरवयणम्मि ।। ७८६ ।। एकाकिनोऽसहायाः, अविकला अविह्वला धृतिसंतोषसत्वोत्साहादिसंपन्ना वसंति सतिष्ठते गिरिकंदरासु पर्वतजलदारितप्रदेशेषु, सत्पुरुषाः प्रधानपुरुषाः, धीराः अदीनमनसो, दैन्यवृत्तिरहिताः, रममाण क्रीडतो रति कुर्वतो वीरवचने । यत एकाकिनोऽपि वैकल्यरहिता अदीनभावा वीरवचने भेदभावने रतिं कुर्वाणा गिरिकंदरासु' वसंति यतो धीराः सत्पुरुषाश्चेति ॥७८६॥ अतश्च ते धीरा वसधिसु अप्पडिबद्धा ण ते ममत्ति करेंति वसधीसु । सुण्णागारमसाणे वसंति ते वीरवसधीस ॥ ७६० ।। वसतिध्वप्रतिबद्धाः स मदीय आश्रयस्तत्र वयं वसाम इत्येवमभिप्रायरहिताः, ममत्वं न कुर्वति वसतिषु निवासनिमित्तमोहमुक्तास्ते साधवः, शून्यगृहेषु श्मशानेषु प्रेतवनेषु वसन्ति से वीरवसतिषु यतो ___ गाथार्थ-जो एकाकी रहते हैं, विकलता रहित हैं, गिरिकन्दराओं में निवास करते हैं, सत्पुरुष हैं, दीनता रहित हैं, वीर भगवान् के वचन में रमते हुए वे धीर कहलाते हैं । ॥७८६॥ आचारवृत्ति-वे मुनि एकाकी-असहाय विचरण करते हैं। अविकल-विह्वलता रहित अर्थात् धैर्य, संतोष, सत्व और उत्साह आदि से संपन्न होते हैं । वे पर्वत की कंदराओं अर्थात् 'पर्वत पर' जल से विदारित स्थानों में रहते हैं। वे प्रधान-पुरुष दैन्य वृत्ति रहित होते हैं और महावीर प्रभु के वचनों में रति करते हैं अर्थात् भेद-भावना में रति करते हैं। वे एकान्त गिरि गुफाओं में निवास करते हुए भी विकल नहीं होते हैं। यही कारण है कि वे धीर कहलाते हैं। भावार्थ-यह जिनकल्पी मुनियों की चर्या है । प्रारम्भ में पदविभागी समाचारी में आचार्य ने स्वयं बतलाया है कि जो उत्तम सहन शक्ति, धैर्य, अंगपूर्व के ज्ञान आदि से युक्त हैं वे ही एकलविहारी हो सकते हैं, किन्तु हीन संहननधारी, अल्पज्ञानी मुनि एकलविहारी न बनें, संघ में निवास करें, बल्कि यहाँ तक कह दिया है कि 'मा मे सत्तु विएगागी।' (गाथा १५०) मेरा शत्रु भी इस तरह अकेला न रहे । अतः आज के मुनियों को एकलविहारी होने की आज्ञा नहीं है । न आजकल के मुनि ऐसे धीर ही बन सकते हैं। इसीलिए वे धीर हैं सो ही बताते हैं गाथार्थ-वसति से बँधे हुए नहीं होते हैं, अतः वे वसति में ममत्व नहीं करते हैं, वे शून्य स्थान श्मशान ऐसी वीर वसतिकाओं में निवास करते हैं। ॥ ७६०॥ __आचारवृत्ति-वसतिकाओं में जो प्रतिबद्ध नहीं होते, 'अर्थात् यह मेरा आश्रय स्थान है, यहीं पर मैं रहूँ इस प्रकार के अभिप्राय से रहित रहते हैं तथा वसतिकाओं में ममत्व नहीं करते हैं, अर्थात् निवास निमित्तक मोह से रहित होते हैं । वे साधु शून्य मकानों में, श्मशानभूमि-प्रेतवनों १. गिरिकन्दरेषु क. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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