________________
[ मूलाधारे
५२ ]
वीराधिष्ठितेषु स्थानेषु महाभयंकरेषु संस्कृतवसतिविषये मुक्तसंगा अपसंगा वसन्त्यतस्तेभ्यः केऽन्ये शूरा इति ॥७६० ॥
पुनरपि सत्वव्या वर्णनायाह
प्राग्भारेषु पर्वत नितंबेषु कन्दरेषु जलहतिकृतप्रदेशेषु चैवंप्रकारेषु दुर्गमप्रदेशेषु, कापुरुषभयंकरेषु सत्वहीन पुरुषभय- जनकेषु' वसतयोऽभिरोचन्ते सत्पुरुषेभ्यः अवस्थानमभिवांछंति सत्पुरुषाः सत्वाधिकाः श्वापदबहुगंभीरावसतय इत्यभिसंबंधः सिंहन्याघ्रसर्पनकुलादि' बाहुल्येन रौद्रगहनस्थानेष्वावासमभिवांछतीति ॥ ७६१ ॥
भारकंदरेसु अ कापुरिसभयंकरेस सप्पुरिसा । वसधी अभिरोचंति य सावदबहुघोरगंभीरा ॥ ७६१ ॥
तथा-
एयंतम्मि वसंता वयवग्धतरच्छ अच्छभल्लाणं । प्रागुंजयमारसियं सुणंति सद्दं गिरिगुहासु ॥ ७६२ ॥
एकान्ते गिरिगुहासु वसंतः संतिष्ठमाना वृकव्याघ्रतरक्षुऋक्षभल्लादीनामागुंजितमारसितं शब्द शृण्वति तथाऽपि सत्वान्न विचलंतीति ॥७२॥
में ठहरते हैं । वे वीर पुरुषों से अधिष्ठित महाभयंकर स्थानों में निवास करते हैं तथा संस्कारित वसति में आसक्ति नहीं रखते हैं । अतः उनसे अतिरिक्त शूर और कौन हो सकते हैं? अर्थात् ऐसे मुनि ही महा शूरवीर होते हैं । इसी कारण वे धीर-वीर कहलाते हैं ।
पुनरपि उनके सत्त्व का वर्णन करते हुए कहते हैं
गाथार्थ- -कायर पुरुषों के लिए भयंकर ऐसे प्राग्भार कन्दराओं में व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं से घोर व्याप्त वसतियाँ सत्पुरुषों को रुचती हैं । ७६१ ॥
आचारवृत्ति - पर्वत के तट को प्राग्भार और जल के आघात से विदारित पर्वत प्रदेश को कन्दरा कहते हैं । ये विषम प्रदेश सत्त्वहीन पुरुषों को भय उत्पन्न करने वाले हैं । वहाँ पर जो वसति हैं उनमें सिंह, व्याघ्र, सर्प, नेवला, आदि जन्तुओं की बहुलता है । ऐसे रौद्र गहन स्थानों में सत्त्वशाली सत्पुरुष ठहरना चाहते हैं । अर्थात् ऐसे स्थान धीर-वीर मुनियों को रुचते हैं । उसी प्रकार से और भी बताते हैं
गाथार्थ - एकान्त में रहते हुए गिरि-गुफाओं में भेड़िया, व्याघ्र, चीता और भालू के गूंजते हुए शब्दों को सुनते हैं ।। ७९२ ।।
Jain Education International
आचारवृत्ति - एकान्त स्थान ऐसी पर्वत की गुफाओं में रहते हुए वे मुनि भेड़िया, व्याघ्र, चीता, रीछ और भालू आदि के बोले गये और गूंजते हुए शब्दों को सुना करते हैं, फिर भी वे सत्त्व - धैर्य से विचलित नहीं होते हैं ।
१. जननेषु क०
२. सर्पादिभिर्बाहुल्येन रौद्रं गहनं स्थानायावासमभिवाञ्छन्तीति क०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org